________________
श्री नेमिनाथ-चरित * 157 उसका यह चमत्कार देखकर सब तापस बड़े विचार में पड़ गये और अपने मन में कहने लगे कि नि:संदेह यह कोई देवी है। वर्ना मानुषी में इतनी शक्ति कहाँ कि वह इस प्रकार पृथ्वी पर जल का गिरना रोक दे। ऐसा सोन्दर्य भी मानुषी में होना असम्भव ही है। अस्तु।
इसके बाद उस वसन्त सार्थवाह ने पूछा-“हे देवि! आप यह किस देवता का पूजन कर रहीं है।"
दमयन्ती ने कहा-“यह तीनों लोक के नाथ अरिहन्त देव का बिम्ब है। यह परमेश्वर हैं और मन वांछित देने वाले हैं। इन्हीं की आराधना के कारण मैं यहां निर्भय होकर रहती हूँ। इनके प्रभाव से मुझे व्याघ्रादिक हिंसक प्राणी भी हानि नहीं पहुंचा सकते।"
इस प्रकार अरिहन्त भगवान की महिमा का वर्णन कर दमयन्ती ने सार्थवाह को अहिंसामूलक जैन धर्म कह सुनाया। उसे सुनकर उसने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। उन तापसों ने भी उसके उपदेश से सन्देह रहित जिन धर्म स्वीकार किया और अपने तापस धर्म को त्याग दिया।
इसके बाद वसन्त सार्थवाह ने उसी जगह एक नगर बसाया और वहां पर शान्तिनाथ भगवान का एक चैत्य बनवाकर उसमें अपना सारा धन लगाया। इसके बाद वह सार्थवाह समस्त तापस और उस नगर के निवासी लोक आर्हत धर्म की आराधना करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगे। वहाँ पर रहने वाले पाँच सौ तापसों को सम्यग् ज्ञान प्राप्त हुआ, इसलिए उस नगर का नाम तापसपुर रक्खा। ___ एक दिन दमयन्ती को रात्रि के समय पर्वत के शिखर पर बड़ा प्रकाश दिखायी दिया। साथ ही उसने देखा कि वहां पर बड़ी धूम मची हुई है और सुर, असुर तथा विद्याधर इधर-उधर आ जा रहे हैं। उनके जय-जय कार से समस्त तापस तथा वसन्त सार्थवाह आदि की निद्रा भंग हो गयी। पर्वत पर क्या हो रहा है, यह जानने की सब को बड़ी इच्छा हुई, इसलिए सब लोग सती दमयन्ती को आगे करके उस पर्वत पर चढ़ गये। वहां पहुंचने पर उन्होंने देखा कि सिंह केसरी नामक साधु को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है और देवतागण उसी का उत्सव मना रहे है।