________________
156 नल-दमयन्ती - चरित्र
दिया । वर्षाकाल भी समीप आ गया था, इसलिए वह चुपचाप एक पर्वत की गुफा में चली गयी और वहीं पर चातुर्मास व्यतीत करने लगी।
दमयन्ती ने उस गुफा में श्री शान्तिनाथ भगवान का एक बिम्ब बनाकर स्थापित किया । वह सुबह शाम जंगल से ताजे पुष्प चुन लाती और उन्हीं द्वारा भक्तिपूर्वक उस बिम्ब का पूजन करती । इसके साथ ही वह तरह तरह के व्रत, उपवास और तप का भी अनुष्ठान करती, और जब वे पूर्ण होते तब परम श्राविका की भांति बीज रहित प्रासुक फलों द्वारा पारणा कर उनकी पूर्णाहुति करती।
इस प्रकार दमयन्ती के दिन जप-तप में व्यतीत हो रहे थे। उधर दो चार दिन के बाद सार्थवाह को दमयन्ती का स्मरण आया । उसने जब देखो, कि उसका कहीं पता नहीं है, तब उसे बड़ी चिन्ता हुई और वह वापस लौटकर दमयन्ती की खोज करने लगा। अन्त में उस गुफा के अन्दर दमयन्ती से उसकी भेंट हो गयी। जिस समय वह वहाँ पहुँचा उस समय दमयन्ती जिन बिम्ब का पूजन कर रही थी । उसे सकुशल देखकर सार्थवाह की चिन्ता दूर हो गयी और वह उसे प्रणाम कर विनय पूर्वक उसी जगह बैठ गया।
प्रभु पूजा समाप्त होने पर दमयन्ती ने सार्थवाह का स्वागत किया और बड़े प्रेम से कुशल समाचार पूछा। इसी समय उनका, शब्द सुनकर कुछ तापस भी उस गुफा में जा पहुंचे और वहीं बैठकर उनकी बातें सुनने लगे। वर्षा के दिन तो थे ही, शीघ्र ही बादल घिर आये और मूशलाधार वृष्टि होने लगी । उस गुफा में इतना स्थान न था कि सब तापसों का उसमें समावेश हो सके। इसलिए वे सब वर्षा के कारण व्याकुल हो उठे। उन्होंने दमयन्ती से पूछा" इस समय हम लोग कहां जाये और किस प्रकार इस जल से अपनी रक्षा करें ?
दमयन्ती ने उनकी घबड़ाहट देखकर उन्हें सान्तवना दी और उनके चारों और एक रेखा खींचकर कहां — “यदि मैं सती, परम श्राविका और सरल चित्तवाली होऊं तो बाहर मूशलाधार वृष्टि होने पर भी इस रेखा के अन्दर एक भी बूंद न गिरो ।” दमयन्ती के मुख से यह वचन निकलते ही उतने स्थान में इस तरह जल का गिरना बन्द हो गया, मानों किसी ने छाता तान दिया हो ।