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________________ श्री नेमिनाथ-चरित * 155 फिर तुझे जो अच्छा लगे सो करना। मेरे हृदय में परम आर्हत धर्म बसा हुआ है, इसलिए मैं मृत्यु से तो जरा भी नहीं डरती, परन्तु मुझे तेरा अनिष्ट होने का भय जरूर है। मैं परस्त्री हूँ! यदि तू मुझे स्पर्श करेगा, तो भयंकर विपत्ति में फँस जायगा, तेरा सारा सुख नष्ट हो जायगा।" दमयन्ती के इन मधुर वचनों का उस राक्षस पर गहरा प्रभाव पड़ा। उसने प्रसन्न होकर कहा-“हे भद्रे। तुम्हारे मधुन वचन सुनकर मैं अपनी भूख प्यास भूल गया हूँ। अब मैं तुम्हें भक्षण करना नहीं चाहता। बल्कि मेरे द्वारा तुम्हारा कुछ उपकार हो सके तो उसे करने के लिए भी मैं सहर्ष तैयार हूँ।" ___ दमयन्ती ने पूछा- “क्या तुम संचमुच मेरा उपकार करना चाहते हो? अच्छा, यदि ऐसी ही बात है, तो बतलाओ कि मेरे पतिदेव मुझे अब कब मिलेंगे? राक्षस ने अवधिज्ञान से जानकर कहा-“हे यशस्विनी। प्रवास के दिन से लेकर ठीक बारह वर्ष पूर्ण होने पर तुम्हारे पति से तुम्हारी भेंट होगी। उस समय तुम अपने पिता के घर में होगी। वहां पर तुम्हारे इस वियोग का अन्त आयगा। मेरा यह वचन झूठा नहीं पड़ सकता। इस समय हजार उपाय करने पर भी उनसे भेंट नहीं होगी, इसलिए उसके लिए चेष्टा करना, व्याकुल होना या रोना धोना बेकार है। तुम्हें मार्ग की कठिनाइयों से भी अब घबड़ाने की जरूरत नहीं। मैं तुम्हें क्षणमात्र में तुम्हारे पिता के घर पहुंचा सकता हूँ।" दमयन्ती ने कहा- “नहीं भाई, यह कष्ट करने की जरूरत नहीं। मैं पर पुरुष के साथ.कहीं भी जाना पसन्द नहीं करती। तुमने मेरे पति के आगमन का जो समाचार बतलाया है, वहीं मेरे लिये बहुत है। मुझे इससे ही सन्तोष है, तुम अब सहर्ष जा सकते हो। तुम्हारा कल्याण हो। यह सुनकर वह राक्षस अपना ज्योर्तिमय रूप दिखाकर बिजली के पुञ्ज की भांति तुरन्त वहां से आकाश की ओर उड़ गया। दमयन्ती को जब यह मालूम हुआ कि उसके पति का प्रवास काल बारह वर्ष का है, तब उसने प्रतिज्ञा की कि जब तक पतिदेव नहीं मिलेंगे, तब तक रंगे हुए वस्त्र, ताम्बूल, आभूषण, विलेपन और छ: विगय अपने काम में न लाऊँगी। साथ ही उसने मायके जाने का विचार भी थोड़े दिनों के लिए त्याग
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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