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________________ 154 * नल-दमयन्ती-चरित्र वह पहले की अपेक्षा अधिक स्वस्थ, शान्त तथा प्रसन्न दिखायी देने लगी। . संयोगवश इसी समय आकाश काले काले बादलों से घिर आया और बड़े वेग के साथ मूशलाधार वृष्टि होने लगी। जल की अधिकता के कारण उस जंगल की समस्त भूमि सरोवर के रूप में परिणित हो गयी। जिधर देखें उधर जल ही जल दिखायी देने लगा। कीचड़ कादे के कारण चार कदम भी चलना कठिन हो गया। वायु के शीतल झकोरे कलेजे को भी कँपा डालते थे। पूरे तीन दिन तक यही अवस्था रही। इन तीन दिनों में बेचारे पक्षी तक अपने घोसलों से बाहर न निकल सके चौथे दिन वृष्टि बन्द हुई, बादल छंट गये और सूर्य भगवान अपने स्वाभाविक उत्ताप द्वारा पुन: सब के शरीर में नवजीवन का संचार करने लगे। सौभाग्य वश दमयन्ती को इस वर्षा और तूफान के कारण कोई कष्ट न हुआ। सार्थ वाहक ने उसके आराम के लिए ऐसा प्रबन्ध कर दिया था कि उसे यह भी अनुभव न होता था कि मैं जंगल में अपरिचित आदमियों के बीच में हूँ। बल्कि उसे ऐसा मालूम होता था, मानों में अपने पिता के घर पहुंच गयी हूँ। वर्षा बन्द हो जाने के बाद भी दो तीन दिन तक उस सार्थ ने अपना पड़ाव वहां से न उठाया। इसके बाद जब रास्ता साफ हो गया, तब उसने वहां से आगे के लिए प्रस्थान किया। दमयन्ती भी भाग्य भरोसे दु:खित हृदय से वहां से आगे के लिए चल पड़ी। ___ कुछ दूर जाने पर दमयन्ती को साक्षात् यमराज के समान एक भयंकर राक्षस मिला। उसकी जीभ ज्वाला के समान, मुखाकृति विकराल और भयंकर, पैर तालवृक्ष के समान ऊँचे, रंग काजल के सामान काला और स्वभाव जंगली पशुओं की भांति हिंसक था। दमयन्ती को देखते ही वह प्रसन्न हो उठा। उसने कहा-“हे मानुषी ! मैं बहुत दिनों का भूखा हूँ और किसी शिकार की खोज में इधर उधर घूम रहा हूँ। मैं समझता हूँ कि मेरे भाग्य से ही तुम यहां आ गयी हो। अब मैं तुम्हें भक्षण कर अपनी क्षुधा शान्त करूँगा।" ___ राक्षस के वचन सुनकर दमयन्ती का हृदय भय से कांप उठा। फिर भी उसने हिम्मत से काम लेकर कहा-“हे राक्षस! तू पहले मेरी बात सुन ले,
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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