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श्री नेमिनाथ-चरित * 151 कैंचुली कदापि भार रूप नहीं मालूम होती। हे नाथ! यदि मुझे चिढ़ाने के लिए, मुझसे हँसी करने के लिए, आप कहीं वन में छिप रहे हो, तो अब मुझे शीघ्र ही दर्शन दीजिए। आपकी यह हँसी मेरे लिए प्राणघातक हो रही है। हे वन देवता! मैं आपसे प्रार्थना करती हैं, आप मेरे प्राणेश को मुझे दिखा दीजिए। वे जिस रास्ते गये हों, वह रास्ता मुझे बता दीजिए। हे प्राणेश! मैं आपके बिना यह जीवन कैसे धारण करूँगी? हे पृथ्वी माता! तुम्हीं मुझे अपने गर्भ में स्थान देकर मुझ पर कुछ उपकार करो? वहां मुझे शायद कुछ शान्ति मिल सके। इस संसार में तो अब उनका मिलना संभव नहीं प्रतीत होता।
इस प्रकार दमयन्ती ने बहुत देर तक विलाप किया। यहां तक कि उसके अश्रुओं से उस का वस्त्र और उस स्थान की भूमि सिक्त हो गयी। अन्त में वह उठ खड़ी हुई और आस पास के स्थानों में नल की खोज करती हुई विचरण करने लगी। वह जल और. स्थल, वन और पर्वत सभी स्थानों में गयी, सर्वत्र उन्हें खोजा, किन्तु न तो कहीं उनका पता ही चला, न उसे ज्वर पीडित की भांति कहीं शान्ति ही मिली। अन्त में वह व्याकुल हो, कर्तव्य विमुढ बन गयी और एक स्थान में बैठकर अपनी अवस्था पर विचार करने लगी। ..
. इसी समय उसकी दृष्टि उन दो श्लोकों पर जा पड़ी, जो राजा नल ने चलते समय अपने रुधिर से उसके वस्त्र पर लिख दिये थे। पतिदेव के हस्ताक्षर देखते ही उसका चित्त प्रफुल्लित हो उठा। उसने आनन्द पूर्वक उन श्लोकों को पढ़ा। पढ़कर अपने मन में कहने लगी—“अवश्य ही पतिदेव मुझे भूले नहीं है। उन्होंने अपने हृदय का सर्वोच्च स्थान अब भी मुझे दे रक्खा है। यदि ऐसा न होता तो वे मुझे आदेश रूपी अपना यह प्रसाद क्यों दे जाते ? मैं प्राण नाथ के इस आदेश को गुरुवाक्य से भी बढ़कर मानूंगी। उनकी आज्ञा मेरे लिये सदा कल्याणप्रद ही हो सकती है। मैं पिता के घर जा सकती हूं, किन्तु पति के बिना पिता का गृह भी स्त्रियों के लिए नरक समान दुःखदायी हो पड़ता है। किन्तु मैंने पतिदेव के साथ भी मायके जाने की इच्छा की थी, अब उन्होंने
आदेश भी दिया है, इसलिए मुझे मायके अवश्य जाना चाहिए। जब तक वे मेरी खबर न लेंगे, तब तक वही मेरा आश्रयस्थान होगा।"