________________
150 * नल-दमयन्ती-चरित्र खोलकर देखा, तो नल का कहीं पता न था इससे वह चिन्ता में पड़ गयी और झुण्ड से बिछुड़ी हुई हरिणी की भांति चारों ओर चकित हो होकर देखने लगी।
जब उत्तरोत्तर अधिक समय व्यतीत हो चला और उसे कहीं भी नल दिखायी न दिये तब वह अत्यन्त व्याकुल हो उठी। वह अपने मन में कहने लगी—“यदि पति देव मुँह धोने के लिए कहीं जल लेने गये होते, तो अब तक अवश्य ही लौट आये होते। किन्तु वे तो बिना बतलाये एक क्षण के लिए भी इस प्रकार मुझे अकेली न छोड़ते थे तब क्या वे मुझे छोड़कर कहीं चले गये? नहीं, यह भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि मैंने कोई अपराध तों किया नहीं! तब क्या कोई विद्याधरी उनके रूप पर मोहित हो, उन्हें बलपूर्वक खिलाने के लिए उन्हें ले गयी होगी या पतिदेव ही उसकी किसी कला पर मुग्ध हो, उसके साथ चले गये होंगे? हा! यह वृक्ष वही हैं, यह पर्वत वहीं है, यह अरण्य और यह पृथ्वी भी वही है, किन्तु कमल समान लोचन वाले एक नल . ही मुझे दिखायी नहीं देते। हा दैव! तूने यह मेरा अन्तिम अवलम्ब भी मुझ से क्यों छीन लिया?" - अब दमयन्ती अपने स्वप्नपर विचार करने लगी। वह कहने लगी“मैंने जो स्वप्न देखा है, वह नि:संदेह अच्छा नहीं है। मैंने स्वप्न में जो आम्रवक्ष देखा है वे नलराज है। उस के पत्र फलादिक राज्य हुआ। फल खाना अर्थात् राज्स सुख भोग करना। भौरे हुए मेरे परिजन। जंगली हाथी हुआ दुर्दैव। उसने मेरे पति को स्थान भ्रष्ट कर दिया, उनका राज्य छीन लिया। मेरा वृक्ष से गिरना, नल से पृथक होना हुआ। मुझे मालूम होता है कि मैं अब अपने प्राणनाथ से शायद न मिल सकूँगी। स्वप्न का तो यही तात्पर्य मालूम होता है।
इस प्रकार अपने स्वप्न पर ज्यों-ज्यों विचार करती गयी, त्यों त्यों दमयन्ती का जी दु:खी होता गया। नल का अब भी कहीं पता न था। वह अपने भाग्य को दोष देती हुई करुण क्रन्दन करने लगी। वह कहने लगी"हा नाथ! हा हृदयेश्वर! आप ने मुझे क्यों छोड़ दिया। मैंने ऐसा कौन सा अपराध किया था, जिससे आपको वह दुष्कार्य करना पड़ा? क्या मैं आपके लिये भार रूप हो पड़ी थी? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। सर्प को अपनी