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श्री नेमिनाथ-चरित * 149 हैं। जब इस को नींद खुलेगी और यह मुझे न देखेगी तब यह अपने मन में क्या कहेगी? सम्भव है कि उस अवस्था में यह अपना प्राण भी त्याग दे, इसलिए मुझे इसके साथ यह व्यवहार न करना चाहिए। यह इसके प्रति विश्वास घात होगा-अधर्म होगा। इससे तो इसके साथ ही मुझे भी यहां पर मृत्यु से भेंटना पड़े तो वह अच्छा है।"
थोड़ी देर बाद पुन: नल के हृदय में विचार आया—यह जंगल बहुत ही भयंकर है। इसे पार करना दमयन्ती के लिए असम्भव है यदि किसी तरह उसने इसे पार भी कर लिया,तो मैं अब इसके मायके तो जाऊँगा नहीं। उस अवस्था में मेरे साथ इसे न जाने कब तक और कहां कहां भटकना पड़ेगा? क्या इससे दमयन्ती का जीवन सुखी हो सकता है ? क्या इससे उसके दुःखों का अन्त आ सकता है ? नहीं नहीं, यह रोज़ की यातना, रोज का मन: कष्ट तो मृत्यु से भी बढ़कर दुःख प्रद है। मैं यह सब अपनी आंखों से कैसे देख सकूँगा। इससे तो यही अच्छा है, कि रातभर दमयन्ती की रक्षा कर, सुबह उसकी निद्रा भंग होने के पहले ही मैं यहां से चला जाऊँ। दमयन्ती उठेगी। तब मुझे न देखकर अवश्य दुःखी होगी, किन्तु अन्त में उन श्लोकों को मेरा आदेश मानकर वह अवश्य अपने मायके या ससुराल चली जायगी। इससे कुछ दिन के बाद उसका जीवन सुखी हो जायगा और वह इन सब दु:खों को स्वप्न की भांति भूल जायगी। मुझे भी चिरकाल तक उसका दु:ख देखकर दु:खी न होना पड़ेगा। इससे बढ़कर और क्या हो सकता है ?" ___ अन्त में नल ने यही निर्णय किया। वे रातभर नंगी तलवार लिये दमयन्ती के पास खड़े रहे। सुबह उसके उठने के पहले ही अन्तिम बार उसका मुख देखकर मन ही मन उसकी कल्याण कामना कर नल ने शीघ्रता पूर्वक वह स्थान छोड़ दिया।
सुबह निद्रा भंग होने के पहले दमयन्ती ने एक स्वप्न देखा। उसे ऐसा मालूम हुआ मानों वह फल और पत्र युक्त एक आम्रवृक्ष पर बैठी है और भ्रमर का शब्द सुनती हुई उसके फल खा रही है। इतने ही में एक हाथी ने आकर उस वृक्ष को उखाड़ डाला और दमयन्ती पक्षी के अण्डे की तरह जमीन पर आ गिरी। यह स्वप्न देखते ही दमयन्ती की निद्रा भंग हो गयी। उसने आंखे