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________________ 148 नल-दमयन्ती - चरित्र विदर्भेषु यात्यध्वा, वटाऽलङ्कृतया दिशा । कोशलेषु च तद्वाम-र म- स्तयोरेकेन केनचित् ॥1॥ गच्छे : स्वच्छाशये ! वेश्म्, पितु र्वा श्वसुरस्यवा । अहं तु क्वापि न स्थातुमुत्सहे हे विवेकिनि ! ॥2॥ अर्थात् — “ जिस दिशा में वटवृक्ष है, उसी दिशा में विदर्भ देश जाने का रास्ता है और उसकी बायीं ओर जो रास्ता जाता है, वह कोशल देश की ओर गया है। हे विवेकिनि ! इन दो में से इच्छानुसार एक रास्ते को पकड़कर तुम पिता या श्वसुर के यहाँ चली जाना। तुम इन दो में से किसी भी एक स्थान में रह सकती हो, परन्तु मेरी इच्छा तो कहीं भी रहने की नहीं होती । " यह सब कारवाई करने के बाद नल उस स्थान से तो चल दिये, किन्तु उनको इससे सन्तोष न होता था । वे वारंवार सिंह की भांति घूम घूम कर अपनी सोती हुई प्रिया को देखते जाते थे । जब वे उससे कुछ दूर निकल गये और उसका दिखलाई देना बन्द हो गया, तब उनका हृदय मचल पड़ा। वे अपने मन में कहने लगे - " मैंने यह बहुत ही बुरा किया। दमयन्ती मुझ पर विश्वास कर अबोध बालक की भांति सो रही है। ऐसे समय में यदि व्याघ्र यां सिंह उस पर आक्रमण कर देंगे, तो उसकी क्या अवस्था होगी ? मुझे इस प्रकार उसे सोती हुई न छोड़ना चाहिए। रात भर मुझे उसकी रक्षा करना उचित है। सुबह वह जहां इच्छा हो वहाँ जा सकती है । ", जिस प्रकार कोई वस्तु भूल जाने पर मनुष्य चिन्तित भाव से उसे लेने के लिए दौड़ पड़ता है, उसी प्रकार नल दमयन्ती के पास दौड़ आये । वह अभी तक ज्यो की त्यों सो रही थी । उसे देखकर नल अपने मन में कहने लगे"अहो ! अन्त: पुर में जिस दमयन्ती के दर्शन सूर्य के लिए भी दुर्लभ थे, वही दमयन्ती आज केवल एक वस्त्र पहिने हुए रास्ते में अकेली पड़ी है । परन्तु इसकी यह दुर्दशा मेरे ही कर्म दोष से हुई है । हे दैव ! मैं क्या करूँ और कहां जाऊँ! मेरी आँखों के सामने ही सती अनाथ की भाँति जमीन पर लोट रही है। मेरे लिये इससे बढ़कर लज्जा की बात दूसरी नहीं हो सकती। मुझे वारंवार धिक्कार है।" फिर वे कहने लगे - " मैं इस सती को यहां पर अकेली छोड़े जा रहा
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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