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________________ श्री नेमिनाथ-चरित * 147 पहरा दूंगा।” . पतिदेव के यह वचन सुनकर दमयन्ती निश्चिन्त हो गयी। नल ने उसकी शैय्या पर अपना अर्धवस्त्र बिछा दिया। तदनन्तर दमयन्ती पंच परमेष्ठी का स्मरण करती हुई उसी शैय्या पर लेट गयी और गहरी थकावट के कारण उसे शीघ्र ही निद्रा आ गयी। ____ दमयन्ती के सो जाने पर, दैव दुर्विपाक से नल के हृदय में एक विचार का उदय हुआ। वे अपने मन में कहने लगे—“ससुराल जाकर रहना बहत ही बुरा है, पहले दरजे की नीचता है। उत्तम पुरुष कदापि ऐसा नहीं करते। मुझे भी यह विचार छोड़ देना चाहिए। वहां जाकर रहने से मेरा अपमान होगा। उसे अपने पिता के यहाँ सुख मिलने की आशा है, इसलिए वह तो वहीं चलने पर जोर देगी। वह वहां पर सुखी भी हो सकती है, वह चाहे तो वहां सहर्ष जा सकती है, मैं उसे रोकना भी नहीं चाहता, किन्तु मैं वहां क्यों जाऊँ ? नल बड़ी चिन्ता में पड़ गये। दमयन्ती उनके साथ थी। वह अपने मायके जाना चाहती थी, किन्तु नल को इसमें अपना अपमान दिखायी देता था, इसलिए वे असमंजस में पड़ गये। दूसरे ही क्षण उनके हृदय में वह भयंकर विचार उत्पन्न हुआ, जिसके कारण उन दोनों का वह रहा सहा सुख भी नष्टं हो गया, जो एक दूसरे के साथ रहने से उन्हें उस जंगल में भी प्राप्त होता था। वे कहने लगे-“यदि अपने हृदय को पत्थर बनाकर मैं दमयन्ती को यहीं छोड़ दूं, तो फिर में जहां चाहूं वहां जा सकता हूँ। दमयन्ती परम सती है। अपने सतीत्व के प्रभाव से सर्वत्र उसकी रक्षा होगी। किसी का सामर्थ्य नहीं जो उसे किसी प्रकार की हानि पहंचा सके। बस, यही विचार उत्तम है। इसीको अब कार्य रूप में परिणित करना चाहिए।" ____ इस प्रकार नल ने कुछ ही क्षणों में, उस दमयन्ती को जो उन्हें प्राण से भी अधिक प्रिय थी, हिंसक प्राणियों से भरे हुए जंगल में सोती हुई अवस्था में छोड़ जाने का निर्णय कर लिया। उन्होंने दमयन्ती की शैय्या पर अपना जो वस्त्र बिछा दिया था, उसे छूरी से आधा काट लिया। इसके बाद दमयन्ती के वस्त्र पर अपने रुधिर से निम्नलिखित दो श्लोक लिखकर वे आंसू बहाते हुए चुपचाप वहां से एक तरफ चल दिये।
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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