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146 नल-दमयन्ती - चरित्र
तृषा निवारण करते। यह सब करते हुए उनका हृदय विर्दीण हुआ जाता था, अपनी हृदयेश्वरी की यह दयनीय दशा देखकर उनकी आंखों में आंसू भर आते थे, किन्तु लाचारी थी । यह सब सहन करने के सिवा और कोई उपाय भी न था। एक दिन दमयन्ती ने पूछा - " नाथ ! अभी यह जंगल और कितना बाकी है? अभी इसे पार करने में कितने दिन लगेंगे ? मुझे तो ऐसा मालूम होता है, मानों इस जंगल में ही मेरे जीवन का अन्त आ जायगा । "
नल ने कहा - "प्रिये ! यह जंगल तो सौ योजन का है जिसमें से हम लोगों ने शायद ही पांच योजन अभी पार किये हो । किन्तु विचलित होने की जरूरत नहीं। जो मनुष्य विपत्तिकाल में धैर्य से काम लेता है, वहीं अन्त में सुखी होता है । "
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इस तरह की बातें करते हुए दोनों जन जंगल में चले जा रहे थे। धीरे धीरे शाम हुई और सूर्य भी अस्त हो गये । नल ने देखा कि अब दमयन्ती, बहुत थक गयी है, साथ ही रात्रि के समय जंगल में आगे बढ़ना ठीक भी नहीं, इसलिए उन्होंने अशोक वृक्ष के पत्ते तोड़कर उसके लिए एक शैय्या तेयार कर दी। इसके बाद उन्होंने दमयन्ती से कहा-' - "प्रिये ! अब तुम इस शैय्या पर विश्राम करो। यदि तुम्हें थोड़ी देर के लिए भी निद्रा आ जायगी, तो तुम अपना सारा दुःख भूल जाओगी। दुःखी मनुष्य को निद्रा में ही थोड़ी सी शान्ति मिल सकती है।"
दमयन्ती ने कहा—“हे देव ! मुझे मालूम होता है मानों पश्चिम की ओर कोई हिंसक प्राणी छिपा हुआ है। देखिए, गायें भी कान खड़े किये उसी ओर देख रही हैं। यदि हम लोग यहां से कुछ आगे चलकर ठहरें तो बहुत अच्छा होगा । "
नल ने कहा – “प्रिये ! तुम बहुत ही डरपोक हो, इसलिए ऐसा कहती हो। यहां से आगे बढ़ना ठीक नहीं। आगे तपस्वियों के आश्रम हैं । वे सब मिथ्या दृष्टि हैं। उनके संग से सम्यक्त्व उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार खटाई पड़ने के कारण दूध अपनी स्वाभाविक गन्ध और स्वाद से रहित बन जाता है, विश्राम के लिए यही स्थान सबसे अच्छा है तुम निश्चित होकर सो जाओ यदि तुम्हें भय मालूम होता है, तो मैं अंगरक्षक की भाँति सारी रात