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. श्री नेमिनाथ-चरित * 145 भयभीत हो गये, कि उनमें बेतरह भगदड़ मच गयी। नल ने उनका पीछा किया, दमयन्ती ने भी उनका साथ न छोड़ा। भीलों को खदेड़ते हए वे अपने रथ से कुछ दूर निकल गये। भीलों को फिर इतनी हिम्मत ही न हई, कि वे एकत्र देखकर उनसे लोहा लें, इसलिए कुछ दूर तक उनका पीछा करने के बाद नल और दमयन्ती वापस लौट आये।
किन्तु जब बुरे दिन आते हैं, तब विपत्ति के बादल शिर पर मंडराया ही करते हैं। मनुष्य को कभी किसी विपत्ति का शिकार होना पड़ता है, तो कभी किसी विपत्ति का। जिस स्थान पर रथ खड़ा किया था, उस स्थान पर आकर नल ने देखा, तो रथ का कहीं पता भी न था। केवल सारथी दुखित भाव से एक ओर खड़ा था। उसने नल को बतलाया कि जिस समय आप भीलों को खदेड़ने गये थे, उसी समय भीलों का एक दूसरा दल यहां आया और उसने वह रथ मुझसे छीन लिया! यह सुनकर नल अवाक् हो गये। कहने सुनने की कोई बात भी न थी। दैव दुर्बल का घातक हुआ ही करता है। अब वे सारथी को कोशला नगरी की ओर बिदा कर चुप चाप वहां से चल पड़े और दमयन्ती का हाथ पकड़कर उस भयंकर जंगल में भटकने लगे। ___ बेचारी दमयन्ती पर ऐसी मुसीबत कभी न पड़ी थी। उसके कोमल पैर वन की कठिन भूमि में विचरण करने से क्षत विक्षत हो गये। कहीं उसके पैरों में कांटे चुभ जाते, तो कहीं कुश के मूल। उसके पैरों से रक्त की धारा बहने लगी। वह जिधर पैर रखती उधर की ही भूमि रक्त रंज्जित बन जाती। इस प्रकार दमयन्ती ने अपने रक्त से उस वन भूमि को मानों इन्द्रवधूटियों से पूर्ण बना दिया। नल ने उसे आराम पहुंचाने के लिये अपनी धोती फाड़कर उसके दोनों पैरों में पट्टी बांध दी, किन्तु इससे क्या होता था। जिसने कभी महल के बाहर पैर भी न रक्खा था, उसके लिए इस तरह वनवन भटकना बहुत ही दुष्कर था।
दमयन्ती वारंवार थककर वृक्षों के नीचे बैठ जाती। नल अपने वस्त्र से उसका पसीना पौंछने और उसे हवा करते। दमयन्ती जब प्यासी होती, कृपा . के कारण जब उसका कंठ सूखने लगता, तब नल पलाश पत्तों का दोना बनाकर किसी सोते या नदी से उसके लिए जल भर लाते और उससे उसकी