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144 * नल-दमयन्ती-चरित्र
रहा था। उसकी अश्रु धारा से सारा रथ भीज गया। उसकी यह अवस्था देखकर नल ने उसे सान्तवना दी। जब वह कुछ शान्त हुई, तब नल ने उससे कहा-“हे देवि! अब आगे बढ़ने के पहले हम लोगों को अपना स्थान निर्धारित कर लेना चाहिए। क्या तुम कोई ऐसा स्थान बतला सकती हो जहाँ जाने से हम लोगों को शान्ति मिल सके।"
दमयन्ती की बुद्धि बहुत ही तीक्ष्ण थी। उसने यह सोचकर कि ऐसे समय में अपना आदमी ही अपने काम में आता है, कहा-“हे नाथ! इस समय आप कुंडिनपुर चलिए और मेरे पिता का आतिथ्य ग्रहण कर उन्हें कृतार्थ कीजिए। मेरा धारणा है कि आपको वे सब प्रकार की सहायता देंगे।" ... ___“दमयन्ती की यह सलाह नल को भी पसन्द आ गयी। उन्होंने उसी ओर रथ बढ़ाने का सारथी को आदेश दिया।
इस स्थान से आगे बढ़ने पर राजा. नल को एक भयंकर जंगल मिला, जो व्याघ्र जैसे हिंसक प्राणियों से भरा था। साथ ही वक्षों के कारण वहां ऐसी घटा घिरी हुई थी, कि दिन को भी सूर्य देव का प्रकाश उस स्थान को प्रकाशित न कर सकता था। यहां पर ऐसे भीलों से नलराज की भेट हो गयी, जो देखने में यमदूत के समान प्रतीत होते थे। उनके धनुष कान तक खिंचे हुए थे और उन पर विष के बुझे हुए तीक्ष्ण बाण चढ़े हुए थे। उनमें से कुछ पहलवानों की तरह ताल ठोकने लंगे और कुछ मेघधारा की भांति बाणवृष्टि करने लगे। जिस प्रकार कभी कभी कुत्ते हाथी का रास्ता रोक लिया करते हैं, उसी प्रकार इन भीलों ने चारों और से नल को घेर कर उनका रास्ता रोक लिया।
यह देखकर नल अपने रथ से कूद पड़े। तलवार खींचकर वे उन पर टूटना ही चाहते थे, कि इतने में दमयन्ती ने उनका हाथ पकड़ लिया। उसने कहा हे नाथ आप इन लोगों पर रोष न करें। यह सब मूर्ख और कायर हैं। इन पर हाथ उठाना आपको शोभा न देगा। सिंह कभी शशक और श्रृगाल पर वार नहीं करता। इनके खून में आप अपनी तलवार मत रंगिये। इनके लिए तो मैं ही काफी हूँ।"
इतना कह दमयन्ती ने एक बार हुंकार किया। उसे सुनते ही वे सब इतने