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140 * नल-दमयन्ती-चरित्र
किसी तरह यह समाचार दमयन्ती ने सुना। वह तुरन्त गिरती पड़ती वहां पर. दौड़ आयी। नल की हालत देखकर उसका तो कलेजा ही बैठ गया। वे मानों पागल हो रहे थे। आंख बन्द कर अपना राज्य दांव पर लगाते और बात की बात में हार जाते। दमयन्ती उनके पैरों पर गिर पड़ी और गिड़गिड़ाकर कहने लगी—“हे नाथ! आज आप यह क्या अनर्थ कर रहे हैं ? उठिये, इसी समय इस जुएं से मुख मोड़िये, वर्ना हम लोग पथ के भिखारी बन जायेंगे। हे नाथ! मैं आपको रोज समझाती थी, कि यह बहुत ही बुरा व्यसन है। इससे मनुष्य अन्ध बन जाता है और क्षण मात्र में अपनी सारी सम्पदा खोकर अमीर से फकीर बन बैठता है, किन्तु आपने मेरी बात पर ध्यान न दिया। आप राजीखुशी से कुबेर को सारा राज्य भले ही दे दीजिए। मैं उसमें जरा भी.बाधा न दूंगी, परन्तु संसार को यह कहने का अवसर मत दीजिए किं नल. ने जुएं में अपना राज्य खो दिया। आपने जिस राज्य को बढ़ाने के लिए बीसों.लड़ाईयां लड़ी हैं, अपार धन जन स्वाहा किया है, अपने प्राण तक को खतरे में डाला है, उस राज्य को इस तरह जुएं में न खोइए। मेरा हृदय. तो इसके विचार मात्र से-इसकी कल्पना से ही विदीर्ण हुआ जाता है। हे नाथ! मुझ पर दया कीजिए, अपना खयाल कीजिए, जैसे भी हो यहां से उठ चलिए। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा। हे नाथ! दासी की बात मानिए!"
दमयन्ती इससे अधिक कुछ न कह सकी। उसका गला भर आया। गरम गरम आंसुओं से उसने नल के दोनों पैर भिगो डाले। वह और कर ही क्या सकती थी? उसका यह कार्य पत्थर को भी पिघलाने के लिए काफी था, परन्तु काल की कुटिलता के कारण नल के कान पर जूं तक न रेंगी। उन्होंने तिरस्कार पूर्वक अपने पैरों से दमयन्ती को धक्का दे दिया। दमयन्ती सिसकती हुई दूर जा गिरी। नल ने आंख उठाकर उसकी ओर देखने का भी कष्ट न उठाया। वे फिर उसी तरह द्यूत क्रीड़ा में लीन हो गये।
यह सुनकर महल में चारों ओर हाहाकार मच गया। दमयन्ती ने लज्जा छोड़कर मन्त्रियों को बुलाया और उनसे सारा हाल कहा। मंत्रियों ने भी नल के पास जाकर उन्हें बहुत समझाया बुझाया। किन्तु जिस प्रकार सन्निपात के रोगी पर कोई दवा असर नहीं करती उसी प्रकार नल पर किसी बात का प्रभाव न