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श्री नेमिनाथ-चरित * 139 देश को वापस चले गये और नल दमयन्ती प्रजापालन करते हुए अपने दिन आनन्द पूर्वक व्यतीत करने लगे।
परन्तु नल का छोटा भाई कुबेर, जिसको उसके पिता दीक्षा लेते समय युवराज बना गये थे, वह बड़ा ही नीच प्रकृति का था। उसे यदि कुलाङ्गार कहा जाये, तब भी अनुचित न होगा। उसे अपने युवराज पद से सन्तोष न था। उसे तो राजा बनने की इच्छा थी, इसलिए वह नल के बढ़ते हुए प्रताप को सहन न कर सकता था। वह मन ही मन उनका राज्य हड़पने की कोई तरकीब सोच रहा था।
चन्द्रमा में भी कलंक होता है। रत्न भी सर्वथा निर्दोष नहीं होते। नल में हजार सद्गुण होने पर भी एक बहुत बड़ा दुर्गुण था। वे कुछ-कुछ द्यूत के व्यसनी थे—सत्यानाशी जुएं के शौकीन थे। कुबेर ने उनकी इसी दुर्बलता का लाभ उठाने का निर्णय किया। वह नित्य नल के साथ जुआं खेलने लगा। आरम्भ में तो वह मनोविनोद की एक सामग्री रही, किन्तु धीरे धीरे उसने भीषण रूप धारण कर लिया। पहले कोई किसी की हार जीत पर ध्यान न देता था, किन्तु अब लम्बी बाजियाँ लगने लगी। घड़ी दो घड़ी के खेल में लाखों का उलट फेर होने लगा।
नित्य नियमानुसर एक दिन नल जुआं खेलने बैठे। कुबेर तो अपनी घात में था ही, नल को उसकी कुटिलता का ख्याल तक न था। आरम्भ में दोनों की हारजीत बराबर होती रही, कभी नल जीतते और कभी कुबेर। परन्तु थोड़ी देर के बाद जब खेल और गहरा होने लगा, तब नल की भाग्यलक्ष्मी उनसे रूठ गयी। रोज जो पासे उनकी इच्छानुसार पड़ते थे, वही आज उलटे पड़ने लगे। धीरे धीरे नल अपना सारा खजाना हार गये।
परन्तु हारा जुआरी दूना खेले इस कहावत के अनुसार नल ने जुएं से मुंह न मोड़ा। आज उनके शिरपर मानो भूत सवार था। उनको हार पसन्द न थी और जीत होती न थी। उन्होंने अपने साम्राज्य का एक एक प्रान्त दांव पर रखना आरम्भ किया। हर दांव में वे समझते थे कि इस बार जरूर जीतूंगा, परन्तु दुर्भाग्यवश वे लगातार हारते ही चले गये। धीरे धीरे वे आधा साम्राज्य हार गये, किन्तु उन्होंने उठने का नाम न लिया।