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136 नल-दमयन्ती - चरित्र
फिर उसे वश करना कठिन हो जायगा। अभी जो काम केवल धमकी से हो सकता है, वह फिर युद्ध करने पर भी न हो सकेगा ।"
मंत्रियों की बात सुनकर नलराजा ने कदम्ब के यहां एक दूत भेजने का विचार किया। इसके लिए उन्होंने एक महावाचाल दूत को पसन्द किया और उसे सब बातें समझाकर एक बहुत बड़ी सेना के साथ वहां जाने की आज्ञा दी। दूत उसी दिन वहां से प्रस्थान कर शीघ्र ही राजा कदम्ब के यहां पहुँचा। उसने उसकी राज सभा में उपस्थित हो, उसे अपने आगमन का कारण कह सुनाया। साथ ही उसने कहा - "हे राजन् ! आपको अपना अभिमान छोड़कर नल राजा की दासता स्वीकार कर लेनी चाहिए। इसी में आप का कल्याण है । यदि आप मेरे इन हितवचनों पर ध्यान न देंगे और राजा नल की अधीनता स्वीकार न करेंगे, तो नि:सन्देह आप को बहुत पछताना पड़ेगा ।"
दूत के यह वचन सुनते ही कदम्ब का चेहरा लाल हो गया और क्रोध के कारण उसकी आंखों से चिन्गारियाँ झरने लगी। वह आप से बाहर होकर कहने लगा - “हे दूत ! तुम्हारे स्वामी पागल तो नहीं हो गये ? क्या वे मेरी प्रकृति और मेरे भुजबल से अपरिचित हैं ? क्या तुम्हारे यहां सामन्त और मन्त्री आदि का भी अभाव है, जो तुम्हारे राजा को सोते हुए सिंह को जगाने से नहीं रोकते ? तुम्हारे राजा ने तुम्हें मेरे यहां भेजकर बड़ा ही दुस्साहस किया है। तुम दूत हो, साथ ही निर्दोष हो, इसलिए तुम्हें छोड़ देता हूँ । तुम्हारे हितवचनों में कोई सार नहीं । यदि तुम्हारे राजा को राज्य से नफरत हो गयी हो, तो वे खुशी से युद्ध कर सकते हैं। मैं भी इसके लिए तैयार बैठा हूँ।”
उसके यह धृष्टतापूर्ण वचन सुनकर दूत को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वह चुपचाप वहां से अपने नगर को लौट आया और राजा नल को उसका उत्तर और उसके अहंकार का हाल कह सुनाया। सुनकर राजा नल ने शीघ्र ही अपने मन्त्री और सामन्तों को एकत्रकर उनसे सलाह की, सलाह ने शीघ्र ही उस पर आक्रमण करने का निर्णय हुआ, इसलिए राजा नल ने विशाल सेना लेकर तक्षशिला पर धावा बोल दिया और बड़ी फुर्ती के साथ चारों ओर से उसे घेर लिया। उस समय चारों ओर हाथियों का मजबूत घेरा देखकर ऐसा मालूम होता था, मानो तक्षशिला के आसपास लौह-निर्मित किला खड़ा है। इधर नल