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श्री नेमिनाथ-चरित * 135 था, इसलिए जनता ने उनके स्वागत की पूरी तैयारी कर रक्खी थी। नगर के सभी रास्ते ध्वजा और पताकाओं से सजा दिये गये थे। घर घर मंगलाचार हो रहा था। निषधराज ने अच्छा दिन देखकर अपने दोनों पुत्र और पुत्र वधु के साथ नगर प्रवेश किया। निषधराजा ने यहाँ पर भी अपनी ओर से नल का विवाहोत्सव मनाया और दीन तथा आश्रितों को दानादि देकर सन्तुष्ट किया।
इसके बाद नल और दमयन्ती ने बहुत दिनों तक अपना समय आनन्दपूर्वक व्यतीत किया। अन्त में राजा निषधराज को वैराग्य उत्पन्न हुआ, इसलिए उन्होंने नल को अपने सिंहासन पर बैठाकर और कुबेर को युवराज बनाकर दीक्षा ले ली। नलकुमार परम न्यायी और नीतिज्ञ थे, इसलिए उन्होंने इस गुरुतर भार को आसानी से उठा लिया। वे सन्तान की ही भांति प्रजा का पालन करते थे और उनके दुःख से दुःखी तथा सुख से सुखी रहते थे। अपने इस गुण के कारण वे शीघ्र ही जनता के प्रेम भाजन बन गये। बुद्धि पराक्रम
और भुजबल में उनका सामना करना सहज काम न था। इसीलिए उनके शत्रुओं ने मन ही मन हार मान ली, जिससे उनका राज्य केवल निष्कण्टक ही बन गया, बल्कि धीरे धीरे उसमें कुछ वृद्धि भी हो गयी।
राज्य मिलने के कई वर्ष बाद एक दिन नल राजा ने अपने पुराने सामन्त और मन्त्रियों से पूछा-“मेरा राज्य इस समय भी क्या उतना ही बड़ा है, जितना पिताजी के सामने था, या उसमें कुछ वृद्धि हुई है?" ... ____ मन्त्रियों ने कहा-"आपके पिताजी ने तीन अंश न्यून अर्धभरत पर राज्य किया था, किन्तु आप तो पूरे अर्धभरत पर राज्य करते हैं। पिता की अपेक्षा पुत्र का अधिक होना अच्छा ही है। इसी में उसकी तारीफ है। किन्तु आपकी इस कीर्ति में एक बात कलंक रूप हो रही है।
नल ने आश्चर्य चकित होकर पूछा—“वह कौन सी बात है?"
मंत्रियों ने कहा-“यहां से दो सौ योजन की दूरी पर तक्षशिला नामक नगरी में कदम्ब नामक राजा राज्य करता है। आपके अर्धभरत में केवल वही एक ऐसा है, जो आप की आज्ञा नहीं मानता। यद्यपि वह बहुत छोटा राजा है
और आपने सहीसमझकर उसकी उपेक्षा की है, किन्तु यह ठीक नहीं इससे दिनों दिन उसका हौंसला बढ़ता जा रहा है। यदि यही अवस्था बनी रही तो