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134 * नल-दमयन्ती-चरित्र
पतिदेव के यह वचन सुनकर दमयन्ती ने जल लेकर अपना ललाट धो दिया। फलत: उसका तिलक अन्धकार में सूर्य की भांति प्रकाशित हो उठा
और उसी प्रकाश में समस्त सेना उस दिन का रास्ता तय कर निर्दिष्ट स्थान में जा पहुँची।
दूसरे दिन मार्ग में नल को एक प्रतिमाधारी मुनिराज दिखायी दिये। उनके चारों और भ्रमर इस तरह चक्कर काट रहे थे। जिस तरह मधुर रस और पराग के फेर में वे कमल के आसपास चक्कर काटा करते हैं। उन्हें देखते ही नलकुमार अपने पिता के पास दौड़ गये और उनसे कहने लगे—“पिताजी! क्या आप ने इन मुनिराज को नहीं देखा? चलिए, इन्हें वन्दन कीजिए और चलते-चलते इनके दर्शन का पुण्य लुटिए। देखिए, यह मुनिराज कायोत्सर्ग कर रहे है। किसी मदोन्मत हाथी ने खुजली मिटाने के लिए अपना गण्डस्थल इनके शरीर से रगड़ दिया है। मालूम होता है कि वैसा करते समय उसका . मदजल मुनिराज के शरीर में लग गया है और उसीकी सुगन्ध से यह मधु लोलुप भौरों का दल यहां खिंच आया है। इन भौंरों ने मुनिराज को न जाने कितना काटा है, किन्तु फिर भी वे परिसह सहन कर रहे हैं। हाथी द्वारा उत्पीड़ित होने पर भी अपने स्थान या ध्यान से न डिगने वाले मुनिराज का अनायास दर्शन होना वास्तव में बड़े सौभाग्य का विषय है।"
पुत्र के यह वचन सुनकर निषधराज को भी उन मुनिराज पर श्रद्धा उत्पन्न हुई। वे अपने पुत्र और परिवार के साथ उनके पास गये और उनको वन्दन कर कुछ देर तक उनकी सेवा की। इसके बाद उनकी रक्षा का प्रबन्ध कर वे वहां से आगे बढ़े शीघ्र ही कोशला नगरी के समीप आ पहँचे। नल ने दमयन्ती को उसे दिखाते हुए कहा—“प्रिये! देखो, यही जिन चैत्यों से विभूषित हमारी नगरी है।"
नल के यह कहने पर दमयन्ती ने उन विशाल जिन चैत्यों को देखा। उनके बाह्य दर्शन से ही उसका हृदय मन मयूर की भांति थिरक उठा। उसने उत्साहित होकर कहा-“मैं धन्य हूँ जो मुझे आप जैसे पति मिले, जो इस रमणीय नगरी के स्वामी हैं। मैं इन चैत्यों की नित्य वन्दना किया करूँगी।"
इधर निषधराज के आगमन का समाचार पहले ही नगर में फैल गया