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श्री नेमिनाथ-चरित * 133 पुत्री! घोर संकट पड़ने पर भी तुम अपने पति से कभी दूर न रहना। जिस प्रकार शरीर के पीछे छाया लगी रहती है, उसी प्रकार स्त्री को सदा अपने पति का अनुसरण करना चाहिए। पतिव्रता स्त्री के लिए पति के चरण ही आश्रयस्थान हुआ करते हैं। पति ही उसका उपास्य देव
और पति ही उसका जीवनधन होता है। हे पुत्री! मेरी इन बातों पर ध्यान रक्खोगी, तो तुम सदा सुखी रहोगी। भगवान सदा तुम्हारा मंगल करेगा।"
इस प्रकार पुत्री को शिक्षा देकर माता ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से उसे ससुराल के लिए विदा किया। वह भी माता पिता और सखियों के वियोग से खिन्न होती हुई नलकुमार के रथ में बैठ गयी। पुत्र और पुत्रवधू को एक रथ में बैठे देखकर निषधराज का हृदय आनन्द से भर गया। एक विजयी नृपति की भांति अभिमानपूर्वक भूमि को कंपित करते हुए उन्होंने अपने नगर के लिए प्रस्थान किया। उनके हाथी जिधर से निकलते, उधर की जमीन उनके मदजल से तर हो जाती। घोड़े जिधर से निकलते, उधर की जमीन उनके पैरों से दबकर कांसे के बर्तन की तरह बजने लगती। गाड़ियों की गति से रास्ते चित्रित से हो गये। ऊंट और खच्चड़ो ने मार्ग के वृक्षों को पत्र रहित बना दिया। सैनिकों ने कूप, तालाब और नदियों का जल पी पीकर उन्हें खाली कर डाला। सेना के चलने से इतनी धूल उड़ती थी, कि उसके कारण आकाश में दूसरी भूमि सी प्रतीत होने लगती थी। राजा निषध अपने नगर पहुँचने के लिए इतने अधीर हो रहे थे कि वे किसी भी विघ्न बाधा की परवाह न कर तूफान की तरह निश्चित मार्ग पार करने के बाद ही विश्राम का नाम लेते थे। ____ एक दिन निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचने के पहले ही मार्ग में सूर्यास्त हो गया। अन्धकार में जल, स्थल, गड्ढा या टीला कुछ भी दिखायी न देता था। ऐसी अवस्था में सेना के लिए आगे बढ़ना बहुत ही कठिन हो गया। आंखे होने पर भी सब लोग अन्धे की तरह इधर उधर भटकने और ठोकरें खाने लगे। सेना की यह अवस्था देखकर नल ने गोद में लेटी हुई दमयन्ती से कहा-“प्रिये! इस समय हमारी सेना अन्धकार के कारण विचलित हो रही है। तुम्हें इस समय अपने तिलक भास्कर को प्रकाशित कर सेना को आगे बढ़ने में सहायता करनी चाहिए।"