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श्री नेमिनाथ-चरित * 131 नाम नल और कुबेर हैं। इनमें से जिसे तुम पसन्द करती हो, उसे जयमाल पहना सकती हो।"
नल को देखते ही उनके रूप और जन्मान्तर के स्नेह के कारण दमयन्ती उन पर मोहित हो गयी। उसने साक्षात् लक्ष्मी की भांति नलकुमार के कंठ में वरमाल पहना दी। गुरुजनों ने उसकी यह पसंदगी देखकर आनन्द प्रकट किया। आकाश से देव और विद्याधरों ने भी जयजयकार की ध्वनि की। किन्तु उस मण्डप में ऐसे भी कुछ राजे और राजकुमार उपस्थित थे, जो अपनी निष्फलता के कारण बेतरह बिराड उठे। उन्हीं में एक कृष्णराज भी था। वह शीघ्रता पूर्वक सिंहासन से उठकर खड़ा हो गया और तलवार खींचकर कहने लगा—“हे नल! दमयन्ती ने तुम्हें जयमाल पहना दी है, इससे तुम यह मत समझना कि वह तुम्हारी हो जायगी। मेरे जीते जी किसकी मजाल है जो उससे ब्याह कर ले। तुम उसकी आशा छोड़ दो या शस्त्र लेकर युद्ध करने के लिए तैयार हो जाओ! कृष्णराज को जीते बिना तुम्हारा मनोरथ सफल नहीं हो सकता।"
उसकी यह ललकार सुनते ही नल के बदन में मानों आग सी लग गयी। क्रोध के कारण उनका चेहरा तमतमा उठा और दोनों होंठ फड़क उठे। वे भी अपनी तलवार खींचकर चारों और बिजली की तरह चमकाने लगे। अपने स्वामियों की यह युद्ध तत्परता देखकर दोनों और की सेनाएँ भी तैयार हो गयी। भयंकर मारकाट की तैयारी होने लगी। ऐसा मालूम होने लगा मानों स्वयंवर भूमि समरस्थली के रूप में परिणत हो जायगी और कुछ ही क्षणों में वहां खून की नदी बहने लगेगी। एक तो पहले जिस वायुमण्डल में हंसी खुशी
और कोतूहल भरा हुआ था वही अब युद्ध की भावना से गंभीर और भयंकर बन गया!
इस प्रकार रंग में भंग होते देखकर दमयन्ती अपने मन में कहने लगी"ओह! क्या मेरे लिये यह प्रलय उपस्थित होगा? क्या मैं पुण्यहीन हूँ? हे शासन देवी! हे माता! यदि मैं वास्तव में श्राविका होऊं तो नल की विजय .
और उनके शत्रुओं की पराजय हो! सैनिक तो दोनों और के निर्दोष हैं इसलिए उनका बाल भी बांका न हो! '
सकता।