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श्री नेमिनाथ-चरित * 129 दमयन्ती की यह निपुणता देखकर राजा भीमरथ प्रसन्न हो उठे। उन्होंने आचार्यों को एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दक्षिणा स्वरूप देकर सम्मानित किया। दमयन्ती की शिक्षा पूर्ण हो गयी।
इसके कुछ ही दिन बाद दमयन्ती के पुण्य प्रभाव के कारण शासन देवी ने प्रकट हो उसे सोने की चमकती हुई एक जिन प्रतिमा दी और कहा-"हे पुत्रि! यह प्रतिमा शान्तिनाथ भगवान की है। यदि तूं नियमित रूप से इसकी नित्य पूजा करेगी, तो तेरा कल्याण हो जायगा।” इतना कह शासन देवी अन्तर्धान हो गयी और वह नियमित रूप से श्रद्धा पूर्वक उस प्रतिमा की पूजा करने लगी। ___कुछ दिनों के बाद उसने युवावस्था में पदार्पण किया। वह सुन्दर तो थी ही, युवावस्था के कारण अब और भी सुन्दर दिखायी देने लगी। राजारानी को उसका विवाहोत्सव देखने का बड़ा हौंसला था, किन्तु उसके उपयुक्त वर खोज निकालना कोई सहज काम न था। राजा ने सोचा-“अब इसकी अवस्था बड़ी हो गयी है। यह भला बुरा समझ सकती है। इसलिए अब इसका स्वयंवर करना अनुचित न होगा।” मन्त्रियों की सम्मति लेने के बाद अन्त में उन्होंने यही करना स्थिर किया। .. राजा की आज्ञा से शीघ्र ही स्वयंवर की तैयारी होने लगी। भिन्न भिन्न देश के राजाओं को निमन्त्रित करने के लिए निमन्त्रण पत्र देकर दूत विदा किये गये। लाखों रुपये खर्च कर स्वयंवर के लिए एक दर्शनीय मण्डप तैयार किया गया। धीरे धीरे जब स्वयंवर का समय करीब आ पहुँचा, तब भिन्न भिन्न देश के राजा और राजकुमार कुंडिनपुर में आकर एकत्र होने लगे। राजा भीमरथ ने उनको ठहराने के लिए नगर के बाहर रम्य राजमन्दिर बनवाये थे, उन्हीं में वे सब ठहराये गये। उस समय उन सब राजाओं के हाथियों की भीड़ से वह स्थान विन्ध्याचल पर्वत के समान प्रतीत होने लगा।
स्वयंवर में भाग लेने के लिए नल और कुबेर नामक अपने दोनों पुत्रों के साथ निषध राजा भी कुंडिनपुर पधारे थे। राजा भीमरथ उनके सामने जाकर उन्हें सम्मान पूर्वक अपने नगर में लिवा आये थे। उनके ठहरने के लिए भी उन्होंने दूसरे राजाओं की अपेक्षा अधिक सुन्दर और सुविधाजनक स्थान प्रदान किया था।