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122 * कनकवती से वसुदेव का ब्याह
__ कनकवती ने कुण्ठित होकर कहा-“हे सखी! मैं जयमाला किसे पहनाऊं ? मैंने जिसे पसन्द किया था, अपना हृदय हार बनाना स्थिर किया था, वह खोजने पर भी इस समय कहीं दिखलायी नहीं देता।" ____ यह कहते कहते कनकवती की आंखों में आंसू भर आये। वह अपने मन में कहने लगी-“हाँ दैव! अब मैं क्या करूं और कहां जाऊं? यदि मुझे वसुदेवकुमार न मिलेंगे, तो मेरी क्या अवस्था होगी? हा दैव! वे कहां चले गये?"
इसी समय कनकवती की दृष्टि कुबेर पर जा पड़ी। वे उसे देखकर मुस्कुराने लगे। उनकी उस मुस्कुराहट में व्यंग छिपा हुआ था। इसलिए चतुरा कनकवती तुरन्त समझ गयी कि उसकी इस विडम्बना में अवश्य कुबेर का कुछ हाथ है। इसलिए वह उनके सामने जा खड़ी हुई और हाथ जोड़कर दीनतापूर्वक कहने लगी—'हे देव! पूर्व जन्म की पत्नी समझ कर आप मुझसे दिल्लगी न कीजिए। मुझे सन्देह होता है कि मेरे प्राणनाथ को आप ही कहीं छिपा दिया है। हे भगवन् ! क्या आप मेरा यह सन्देह दूर न करेंगे?".
कनकवती की यह प्रार्थना सुनकर कुबेर हँस पड़े। उन्होंने वसुदेव की और देखकर कहा-“हे महाभाग! मेरी दी हुई उस अंगुठी को अब अपनी अंगुली से निकाल दीजिए।" ___ कुबेर की यह आज्ञा सुनकर वसुदेव ने अंगुली से वह अंगूठी निकाल दी। निकालते ही वे पुन: अपने स्वाभाविक रूप में दिखायी देने लगे। कनकवती उन्हें देखते ही आनन्द से पुलकित हो उठी। उसने तुरन्त अपनी वरमाला उनके गले में डाल दी। कुबेर भी इस मणिकञ्चन योग से प्रसन्न हो उठे। उनकी आज्ञा से देवताओं ने आकाश में दुंदुभिनाद और अप्सराओं ने मंगल गान किया। चारों और से यही आवाज सुनायी देने लगी कि धन्य है राजा हरिश्चन्द्र को कि जिनकी पुत्री को ऐसा श्रेष्ठ वर प्राप्त हुआ। तदनन्तर राजा हरिश्चन्द्र ने शीघ्र ही बड़ी धूम धाम के साथ उन दोनों का विवाह कर दिया। कुबेर तथा अन्यान्य राजाओं ने भी इस उत्सव में भाग लेते हुए कई दिन तक राजा हरिश्चन्द्र का आतिथ्य ग्रहण किया।
विवाह कार्य से निवृत्त होने पर एक दिन वसुदेव कुमार ने कुबेर को