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श्री नेमिनाथ-चरित * 121 जिस समय कुबेर अपने दलबल के साथ सभा मण्डप में पहुँचे, उस समय सारा मण्डप जग मगा उठा। देव और देवङ्गनाओं से घिरे हुए कुबेर की उपस्थिति के कारण वहां पर साक्षात् स्वर्ग का दृश्य उपस्थित हो गया।
कुबेर और वसुदेव के आसन ग्रहण करने पर अन्यान्य राजा तथा विद्याधरों ने भी अपना अपना आसन ग्रहण किया। इसी समय कुबेर ने वसुदेव को कुबेर-कान्ता नामक एक अंगूठी पहनने को दी। वह अंगूठी अर्जुन सुवर्ण की बनी हुई थी और उस पर कुबेर का नाम लिखा हुआ था। उसे कनिष्ठिका उंगली में पहनते ही वसुदेव भी कुबेर के समान दिखायी देने लगे। यह एक बड़े ही आश्चर्य का विषय बन गया। सब लोग कहने लगे—“अहो कुबेर यहां पर दो रूप धारण कर पधारे हैं।" चारों ओर बड़ी देर तक इसी की चर्चा होती रही।
यथासमय दिव्य वस्त्रालङ्कारों से सज्जित, हाथ में पुष्पों की जयमाल लिये हुए सखियों से घिरी हुई कनकवती ने राजहंसिनी की भांति मन्दगति से स्वयंवर के मण्डप में पदार्पण किया। पदार्पण करते ही चारों और से सौ दृष्टियाँ एक साथ ही उस पर जा पड़ी। एक बार कनकवती ने भी आंख उठाकर चारों
ओर देखा। उसकी दृष्टि उन राजा महाराजा और राजकुमारों के समूह में वसुदेवकुमार की खोज रही थी। उसने उन्हें चित्र और दूत के वेश में देखा था, इसलिये वह उन्हें भली भांती पहचानती थी, किन्तु आज स्वयंवर मण्डप में वे उसे दिखायी न देते थे। अत: उसने चञ्चल नेत्रों द्वारा वह स्थान दो तीन बार देख डाला, किन्तु कहीं भी उनका पता न चला। इससे उसका मुख कमल मुरझा गया और उसके चेहरे पर विषाद की श्याम छाया स्पष्ट रूप से दिखायी देने लगी। वह इस प्रकार उदास हो गयी, मानों किसी ने उसका स्वस्व छीन लिया हो। मण्डप में अन्यान्य राजे महाराजे पर्याप्त संख्या में उपस्थित थे, किन्तु उसने उनकी और आंख उठाकर देखा भी नहीं। इससे उन्हें चिन्ता उत्पन्न हो गयी, कि उनके वेशविन्यास में कहीं कोई त्रुटि तो नहीं है, फलत: वे वारंवार अपने वस्त्राभूषणों की और देखने लगे, किन्तु कनकवती टस से मस न हुई। उसकी यह अवस्था देखकर एक सखी ने कहा- "हे सुन्दरी! यही उपयुक्त समय है। इन राजाओं में से जिसे तुम पसन्द करती हो, उसे अब जयमाला पहनाने में विलम्ब मत करो!"