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120 कनकवती से वसुदेव का ब्याह
कनकवी ने कहा- ' -" कुबेर का नाम सुनते ही पूर्वजन्म के किसी सम्बन्ध के कारण मेरा चित्त बहुत ही उत्कंठित और आनन्दित होता है, परन्तु हम लोगों का विवाह सम्बन्ध ठीक नहीं। जिनेश्वर भगवान का भी कथन है कि दुर्गन्धयुक्त औदारिक शरीर की गन्ध सहन करने में सुंधाहारी देव असमर्थ होते हैं। मैं तो आपही को अपना पति मानती हूं। आप कुबेर से जाकर कह दीजिए कि मैं उनका दर्शन करने योग्य भी नहीं हूं, क्यों कि मैं एक साधारण स्त्री, मानुषी मात्र हूँ ।
इस प्रकार वसुदेव ने कनकवती को बहुत ही समझाया, किन्तु जब वह टस से मस न हुई और उन्हीं पर अपना अनुराग प्रकट करती रही, तब वे प्रसन्न हो उठे । वे जिस प्रकार गुप्तरूप से यहां आये थे उसी प्रकार : कुबेर के पास वापस लौट गये। वहां पर उन्होंने कुबेर से ज्यों ही यह सब हाल निवेदन करने की इच्छा की, त्योंही कुबेर ने उनको रोक कर कहा - " मुझसे वह सब बातें बतलाने की आवश्यकता नहीं । देवताओं को सब बातें अपने आप मालूम हो जाया करती है।"
इतना कह कर कुबेर ने समस्त देवताओं के समक्ष वसुदेव के निर्विकार आचरण की बड़ी प्रशंसा की। इसके बाद उन्होंने वसुदेव को दो देवदूष्य वस्त्र तथा उत्तमोत्तम आभूषण भी प्रदान किये। इससे वसुदेव साक्षात् कुबेर के समान बन गये। उस समय वहां पर वसुदेव के साथ आये हुए उनके साले आदि उपस्थित थे, वे भी वसुदेव का यह सम्मान देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए।
उधर कनकवती पिता राजा हरिश्चन्द्र को जब मालूम हुआ, कि राजकुमारी का स्वयंवर देखने के लिये साक्षात् कुबेर पधारे हुए हैं, तब उन्होंने सभामण्डप को विविध रूप से सजा कर उनके लिये एक खास आसन बनवा दिया। इसके बाद वे कुबेर के पास गे और मधुर वचनों द्वारा उनका स्वागत कर, उन्हें स्वयंवर देखने के लिए लेकर आये। जिस समय कुबेर मण्डप की और आ रहे थे, उस समय उनकी शोभा दर्शनीय हो रही थी । एक और दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित देवाङ्गनाएं दोनों और से उनपर चमर ढाल रही थी, दूसरी और बन्दीजनों का दल उनका गुणकीर्तन करता हुआ उनके आगे आगे चल रहा था। कुबेर हंस पर सवार थे और उनके पीछे पीछे अन्यान्य देवताओं का दल
चलता था ।