SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 118 * कनकवती से वसुदेव का ब्याह मोतियों से सजे हुए चमर काम में लाये जाते थे। और दासियों के हाथ में सोने चाँदी के बने हुए रत्न जड़ित पात्र दिखायी देते थे। यहां की दासियाँ भी अन्य द्वारों की अपेक्षा अधिक सुन्दर और सुशील प्रतीत होती थी। यहां से आगे बढ़ने पर वसुदेव छठे द्वार में पहुंचे। यहां पर उन्होंने दिव्य सरोवर की भांति चारों और से पद्म विभूषित पद्मभूमि देखी। यहां की रमणियाँ कृमि रंग के वस्त्रों से सज्जित साक्षात् देव सुन्दरी सी प्रतीत होती थी। ____ आगे बढ़ने पर वसुदेव कुमार सातवें द्वार पर पहुँचे। यहां पर दासियों का ही पहरा था, किन्तु वह इतना कड़ा था, कि उनकी नजर बचाकर निकलना किसी के लिए भी सम्भव न था। ____ यहां का ठाट बाठ देखकर कुमार अपने मन में कहने लगे- “यही रानियों का. रनवास मालूम होता है। किन्तु यहां तो कनकंवती दिखायी नहीं देती। अब मैं उसे कहाँ खोजूं?" जिस समय वसुदेव कुमार इस प्रकार की चिन्ता कर रहे थे, उसी समय पास के एक द्वार से एक सुन्दरी रमणी निकलकर वहाँ आ पहुँची। वह प्रधान दासी थी। उसे देखते ही अन्य दासियों ने उत्सुकतापूर्वक पूछा- “बहिन जी! कुमारी कनकवती इस समय कहां है और क्या कर रही है?" उस रमणी ने उत्तर दिया-“वे दिव्यवेश धारणकर प्रमोदवन के राजमन्दिर में अकेली बैठी हुई हैं। उन्हें इस समय किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है।" उसके यह वचन सुनते ही वसुदेव उस द्वार से निकल कर प्रमोदवन में जा पहुँचे। वहां पर उन्होंने उसमें प्रवेश कर कनकवती को खोजना आरम्भ किया। खोजते खोजते जब महल के सातवें खण्ड पर पहुंचे, तब एक भद्रासन पर बैठी हुई, दिव्य वस्त्रालङ्कारों से युक्त, साक्षात् वनलक्ष्मी के समान पुष्पाभरणों से सुशोभित कनकवती उन्हें दिखायी दी। उसे देखते ही वे पहचान गये। वह उन्हीं का चित्र हाथ में लिये बैठी थी। उसे स्थिर दृष्टि से देखना और देखने के बाद हृदय से लगा लेना—यही उसका काम हो रहा था। दूसरे ही क्षण कनकवती की दृष्टि वसुदेव पर जा पड़ी। उनको देखते ही उसका मुख कमल आनन्द से प्रफुल्लित हो उठा। वह तुरन्त अपने आसन से
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy