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116 * कनकवती से वसुदेव का ब्याह धन्य है इस पुरुष को, जैसे विधाता ने ऐसा रूप दिया है, जो सुर असुर और विद्याधरों को भी नसीब नहीं है। इसी तरह का विचार करते हुए वे अपने विमान में जा बैठे, किन्तु इसी समय उनके मस्तिष्क में एक और विचार आया, जिससे वे वहीं ठहर गये। पश्चात् उन्होंने अंगुली से इशारा कर वसुदेव को अपने पास बुलाया। वसुदेव भी निर्भीकता पूर्वक उनके पास जा खड़े हुए। कुबेर ने आदरपूर्वक उन्हें अपने पास बैठाकर उनका बड़ा ही सत्कार किया। अब वे मित्र की भांति प्रेमपूर्वक उनसे बातें करने लगे।
वसुदेव विनयी तो थे ही, कुबेर का यह आदर सत्कार देखकर वे और भी पानी पानी हो गये। उन्होंने हाथ जोड़कर कुबेर से कहा- “मैं आपका दास हूँ। मेरे योग्य जो कार्य सेवा हो, वह सहर्ष सूचित कीजिए।" ..
कुबेर ने नम्रतापूर्वक कहा-"क्या सचमुच आप हमारा कोई कार्य करना चाहते हैं ? यदि ऐसा ही है, तो आप मेरे लिये दूत का कार्य कीजिए। यह आपके लिए बांये हाथ का खेल है। शायद आप जानते होंगे कि राजा' हरिश्चचन्द्र के कनकवती नामक एक कन्या है। इस समय उसके स्वयंवर की तैयारी हो रही हैं। इसलिए आप उससे जाकर कहिए कि इन्द्र का उत्तर दिक्पाल कुबेर तुम्हारे साथ व्याह करना चाहता है। उनसे व्याह करने से तुम मानुषी होने पर भी देवी कहलाओगी। आज तक ऐसा सौभाग्य किसी को भी प्राप्त नहीं हुआ है।"
यह सुनकर वसुदेव के कहा-“भगवन् ! आप का कार्य करने के लिए मैं तैयार हूँ, किन्तु आप ने इस बात पर भी विचार किया है, कि कनकवती के निकट मेरा पहुँचना कितना कठिन है ? मैं तो इसे कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव मानता हूँ।"
कुबेर ने कहा-"आप का कहना ठीक है। साधारण अवस्था में आपको इस कठिनाई के सामना अवश्य करना पड़ता, किन्तु मेरे आशीर्वाद के प्रभाव से अब तुम्हें इसमें कोई भी कठिनाई न होगी। आप वायु की भांति बिना किसी विघ्न बाधा के कनकवती के पास पहुँच जायेंगे।"
यह सुनकर वसुदेव अपने वासस्थान को लौट आये। वहां पर उन्होंने अपने दिव्य वस्त्रालंकार उतार डाले और उनके बदले में सेवक के समान