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श्री नेमिनाथ-चरित * 115 ने उनका स्वागत कर, उन्हें लक्ष्मीरमण नामक उद्यान में ठहराया। वह उद्यान बहुत ही बड़ा था और तरह तरह के वृक्ष, लता, पुष्प तथा महलों से सुशोभित हो रहा था। इसके नाम के सम्बन्ध में किसी ने वसुदेव से बतलाया कि प्राचीनकाल में श्रीनमिनाथ भगवान का समवसरण इस उद्यान में हुआ था। उस समय देवाङ्गनाओं के साथ स्वयं लक्ष्मीजी ने श्रीनमिनाथ भगवान के सामने रास क्रीड़ा की थी। उसी समय से यह उद्यान लक्ष्मीरमण कहलाने लगा।
उसी उद्यान में एक चैत्य भी था। वसुदेव ने वहां जाकर दिव्य उपहार द्वारा जिन प्रतिमाओं की पूजा कर उन्हें वन्दन किया। इसी समय कुमार ने देखा कि लाखों ध्वजा पताकाओं से युक्त, जंगम मेरु पर्वत की भांति आकाश से एक विमान उतर रहा है। उसमें मंगल बाजे बज रहे थे और बन्दीजन कोलाहल कर रहे थे। वसुदेव ने उसका अद्भुत ठाट बाठ देखकर एक देव से, जो उस विमान के आगे आगे चल रहा था, पूछा-“इन्द्र के समान यह विमान किस देवता का है?" ___यह सुनकर उसने उत्तर दिया कि “हे महापुरुष! यह विमान कुबेर का है। किसी विशेष कारणवश से इस पर बैठकर इस धराधाम पर अवतीर्ण हो रहे हैं। वे इस चैत्य में जिन प्रतिमाओं का पूजन कर सबसे पहले कनकवती का स्वयंवर देखने जायेंगे!"
वसुदेव ने अपने मन में कहा—“अहो! धन्य है कनकवती को, जिसके स्वयंवर में देवता भी पधार रहे हैं!" - थोड़ी ही देर में कुबेर विमान से उतर कर जिन चैत्य में गये और वहां पर प्रतिमाओं के समक्ष पूजन, वन्दन और संगीत करने लगे। यह देख, वसुदेव अपने मन में कहने लगे- .
"अहो! यह देव तो परम श्रावक मालूम होता है। तभी तो पुण्यकार्य में तत्पर रहता है। किन्तु यह सब जिन शासन का ही प्रभाव है, इसलिए वही सराहनीय है। आज यह आश्चर्य देखकर मैं भी धन्य हो गया हूँ।"
पूजन से निवृत्त हो, कुबेर ज्योंही चैत्य से बाहर निकले, त्योंही उनकी दृष्टि उस दिव्य रूपधारी वसुदेवकुमार पर जा पड़ी। वे उनका अद्भुत रूप देखकर मन ही मन उसकी सराहना करने लगे। वे अपने मन में कहने लगे कि