________________
114 * कनकवती से वसुदेव का ब्याह यदि शत्रु होता तो मेरी चरण सेवा क्यों करता? या तो यह कोई शरणार्थी होगा या मेरा कोई शुभचिन्तक होगा और किसी आवश्यक कार्य से यहां आया होगा। किन्तु मैं अब इस से बातचीत किस प्रकार करूं? यदि मैं बोलूंगा तो प्रिया की निद्रा में व्याघात होगा और यदि नहीं बोलूंगा, तो इस पुरुष का जी दुःखी हो जायगा। ऐसी अवस्या में मुझे क्या करना चाहिए?"
अन्त में कुछ सोचकर वसुदेव धीरे धीरे इस प्रकार उठ खड़े हुए, कि जिसमें उनकी प्रिया की निद्रा भंग न हो। जब वे पलंग से उतर कर उससे कुछ दूरी पर पहुँचे, तब चन्द्रातप ने भी उनके पास जाकर उनको प्रणाम किया। वसुदेव ने अब उसे अच्छी तरह देखा। देखते ही वे पहचान गये, कि यह तो वही विद्याधर है, जिसने कनकवती का परिचय दिया था। उन्होंने उसका स्वागत कर उसके आगमन का कारण पूछा। चन्द्रातप ने चन्द्र समान शीतल वाणी से कहा-“हे वसुदेव कुमार! मैंने जिस प्रकार आपको कनकवती का परिचय दिया था, उसी प्रकार मैं कनकवती को अब आपका परिचयं देकर आया हूं। साथ ही अपनी विद्या के बल से आपका एक चित्र भी अंकित कर मैं उसे दे आया हूं। आप का वह मनोहर चित्र देखकर उसका चेहरा आनन्द से खिल उठा है और उसे उसने अपने हृदय से लगा लिया है। अतएव अब मैं कह सकता हूं कि स्वयंवर में वह आपके सिवाय और किसी को वरण न करेगी। उसकी बातों और भावभंगी से भी यही प्रकट होता था, इसलिये हे प्रभो! अब आप स्वयंवर के लिए प्रस्थान कीजिए! स्वयंवर में अब केवल दस ही दिन की देरी है।यदि आप समय पर न पहँचेंगे, तो वह निराश हो जायगी और आपके वियोग में शायद प्राण तक दे देगी।"
वसुदेव ने चन्द्रातप को धन्यवाद देकर कहा—“अच्छी बात है। मैं सुबह स्वजनों की अनुमति लेकर यहां से प्रस्थान करूंगा, तुम प्रमोदवन में मेरी राह देखना। वही मैं तुमसे आ मिलूंगा। तुम्हें अपनी चेष्टा में कहां तक सफलता मिली है, यह तो तुम्हें स्वयंवर से ही मालूम हो सकेगा।"
वसुदेव की यह बात सुनकर वह विद्याधर अदृष्य हो गया और वसुदेव फिर अपनी हृदयेश्वरी के पास जाकर सो गये। सुबह स्वजनों की अनुमति और स्त्रियों की सम्मति ले, वसुदेव पेढालपुर में जा पहुंचे। वहां पर राजा हरिश्चन्द्र