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________________ श्री नेमिनाथ-चरित * 113 अपने पास रखना। इससे स्वयंवर के समय कुमार को पहचानने में तुम्हें कठिनाई न होगी।" राजकुमारी उस चित्र को देखकर प्रसन्न हो उठी। उसने हंस की और पुकार कर कहा-“हे भद्र! क्या तुम यह न बतलाओगे कि वास्तव में तुम कौन हो? मुझे तो तुम्हारा यह रूप कृत्रिम मालूम पड़ता है।" ___कुमारी की यह बात सुनकर हंस रूपधारी उस विद्याधर ने अपना असली रूप प्रकट करते हुए कहा-“हे कुमारी! मैं चन्द्रातप नामक विद्याधर हूँ। तुम्हारी और तुम्हारे भावी पति की सेवा करने के लिये ही मैंने यह रूप धारण किया था। हां, तुम से मैं एक बात और बतला देना चाहता हूं कि स्वयंवर के दिन तुम्हारे पतिदेव शायद दूसरे के दूत बनकर यहां आयेंगे। इसलिए तुम उन्हें पहचानने में भूलं न करना।" इतना कह, कनकवती को आशीर्वाद दे, वह विद्याधर वहां से चला गया। उसके चले जाने पर कनकवती उस चित्र को बार बार देखने लगी। वह अपने मन में कहने लगी- “जिस का चित्र इतना सुन्दर है तो वह पुरुष न जाने कितना सुन्दर होगा।" वह तनमन से उस पर अनुरक्त हो उसे कभी कंठ, कभी शिर और कभी हृदय से लगाने लगी, उसके नेत्र मानो उसके दर्शन से तृप्त ही न होते थे। वह मन ही मन उसी को पतिरूप में पाने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने लगी। ___उधर चन्द्रातप विद्याधर को यह धुन लगी थी, कि कनकवती का विवाह वसुदेव के ही साथ होना चाहिए। इसलिए वह कनकवती के हृदय में वसुदेव के प्रति अनुराग उत्पन्न कर, उसी समय कोशला नगरी में गया। उस समय रात्रि का समय था और वसुदेव अपनी प्रियतमा के साथ अपने शयनगृह में सो रहे थे। फिर भी चन्द्रातप अपनी विद्याओं के बल से वहाँ जा पहँचा। उसने वसुदेव की चरण सेवाकर उनको जगा दिया। वसुदेव तुरन्त उठ बैठे। वसुदेव की आँख ज्योंही खुली, त्योंही उनकी दृष्टि चन्द्रातप पर जा . पड़ी। किन्तु अपने शयनगृह में रात्रि के समय किसी अपरिचित पुरुष को देखकर वे न तो भयभीत हुए, न उन्हें क्रोध ही आया। वे अपने मन में कहने लगे—“क्या यह पुरुष मेरा शत्रु होगा? नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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