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112 * कनकवती से वसुदेव का ब्याह इसलिए उसने उसे छोड़ते हुए कहा-“हे हँस! तुम वास्तव में एक रत्न हो। लो, मैं छोड़े देती हूँ। तुम्हें जो कहना हो, वह सहर्ष कहो!"
__ हँस ने कहा-“हे राजकुमानी! सुनो, वैताढय पर्वत पर कोशला नामक एक नगरी है। उसमें कोशल नामक एक विद्याधर राज करता है। उसके देवी समान सुकोशला नामक एक पुत्री है। उसका पति परम गुणवान और युवा है। रूप में तो मानो उसके जोड़े का दूसरा पुरुष विधाता ने बनाया ही नहीं। पुरुषों में जिस प्रकार वह सुन्दर है, उसी प्रकार तुम स्त्रियों में सुन्दरी हो। तुम दोनों को देखकर मुझे ऐसा मालूम हुआ, मानो एक सूत्र में बांधने के लिए ही विधाता ने इस जोड़ी की सृष्टि की है। मैंने यह सोचकर कि तुम दोनों का विवाह मणिकाञ्चन का योग हो सकता है इसीलिए यह चेष्टा आरम्भ की है। आशा है कि इससे तुम अप्रसन्न न होगी।
तुम्हें देखने के बाद कुमार के सामने मैंने तुम्हारे रूप का वर्णन किया था। इससे उनके हृदय में भी तुम्हारे प्रति प्रेमभाव उत्पन्न हो गया है। वे तुम्हारे स्वयंवर में अवश्य ही पधारेंगे। आकाश में अगणित नक्षत्र होने पर भी जिस प्रकार चन्द्र को पहचानने में कोई कठिनाई नहीं पड़ती, उसी प्रकार उनको पहचानने में भी तुम्हें कोई कठिनाई न पड़ेगी। अपने रूप, यौवन और अपनी तेजस्विता के कारण, हजार राजकुमारों के बीच में होने पर भी वे सब से पहले तुम्हारा ध्यान आकर्षित कर लेंगे। हे राजकुमारी! यदि तुम उनसे विवाह करोगी अपनी जयमाल उनके गले में डालोगी, तो अवश्य ही तुम्हारा जीवन सुखमय बन जायगा। तुम अपने को धन्य समझने लगोगी।"
इतना कह उस हंस ने राजकुमारी से बिदा मांगी। किन्तु राजकुमारी उसकी बाते सुनकर मन्त्र मुग्ध की भांति एक दृष्टि से उसकी और देख रही थी। उसे मानो अपने तनमन की भी सुधि न थी। जब हंस वहां से उड़ने लगा, तब उसे होश आया। वह अपने दोनों हाथ फैलाकर उसकी और इस प्रकार देखने लगी, मानों उसे बुला रही हो। हंस ने आकाश से उसके उन फैलाये हुए हाथों में एक चित्र डालते हुए कहा-“हे भद्रे! यह उसी युवक का चित्र है, जिस के रूप का वर्णन मैंने तुम्हारे सामने किया है। चित्र चित्र ही है। यह मेरी कृति है। इसमें दोष सकता है, किन्तु कुमार में कोई दोष नहीं है। इस चित्र को तुम