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श्री नेमिनाथ - चरित : 111
सुशोभित और विशाल सभामण्डप तैयार किया गया और स्वयंवर में भाग लेने के लिये भिन्न भिन्न देश के राजाओं को निमन्त्रण पत्र भी दे दिये गये ।
एक दिन कनकवती अपने कमरे में आराम से बैठी हुई थी। इतने ही में कहीं से एक राजहंस आकर उसकी खिड़की में बैठ गया। उसका वर्ण कपूर के समान उज्ज्वल और चंचु चरण तथा लोचन अशोक वृक्ष के नूतन पत्रों की भांति अरुण थे। विधाता ने मानो श्वेत परमाणुओं का सार संग्रह कर उसके पंखों की रचना की थी। उसके कंठ में सोने के घुंघरू बंधे हुए थे और उसका स्वर बहुत ही मधुर था । वह जिस समय ठुमक ठुमक कर चलता था, उस समय ऐसा मालूम होता था । मानो वह नृत्य कर रहा है।
राजकुमारी कनकवी इस मनोहर हंस को देखकर अपने मन में कहने लगी - " मालूम होता है कि यह किसी का पलाऊ हंस है। यदि ऐसा न होता तो इसके कंठ में यह घुंघरू क्यों बंधे होते ? आह कितना सुन्दर पक्षी है ! मुझे तो यह बहुत ही प्यारा मालूम होता है। मैं इसे पकड़े बिना न रहूँगी। यह चाहे जिसका हो, किन्तु मैं अब इसे अपने ही पास रक्खूंगी।"
इस प्रकार विचारकर उस हंस गामिनी कन्या ने गवाक्ष में बैठे हुए उस हंस को पकड़ लिया। इसके बाद वह अपना कमल समान कोमल हाथ उसके बदन पर फिरा-फिराकर उसे बड़े प्रेम से दुलारने लगी। इतने ही में उसकी एक सखी आ पहुंची। उसने उससे कहा – “देखो सखी! मैंने यह कैसा बढ़िया हंस पकड़ा है! तुम शीघ्र ही इसके लिए सोने का एक पींजड़ा ले आओ। मैं उसमें इसे बन्द कर दूंगी, वर्ना यह जैसे दूसरे स्थान से उड़कर यहां आया है, वैसे ही यहां से किसी दूसरे स्थान को उड़ जायगा । "
- कनकवती की यह बात सुनकर उसकी सखी पींजड़ा लेने चली गयी । इधर उस हंस ने मनुष्य की भाषा में बोलते हुए राजकुमारी से कहा—“हे राजपुत्री ! तुम बड़ी समझदार हो, इसलिए मैं तुम से तुम्हारे हित की एक बात कहने आया हूं। मुझे पींजड़े में बन्द करने की जरूरत नहीं। तुम भी मुझे छोड़ दो। मैं तुम से बातचीत किये बिना यहां से कदापि न जाऊँगा । "
हंस की यह बातें सुनकर कनकवती चकित हो गयी। उसने कभी भी किसी पक्षी को इस तरह मनुष्य की बोली में बातें करते देखा सुना न था ।