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सातवाँ परिच्छेद कनकवती से वसुदेव का ब्याह
इस भरतक्षेत्र में विद्याधरों के भी नगरों को लज्जित करने वाला पेढालपुर नामक एक नगर था। वहां पर महाऋद्धिवान और ऐश्वर्य में इन्द्र के समान हरिश्चन्द्र नामक राजा राज्य करते थे । उनकी पटरानी का नाम लक्ष्मीवती था । वह जैसी गुणवती थी, वैसी ही रूपवंती और पति-परायणा भी थी । राजा हरिश्चन्द्र को वह प्राण के समान प्रिय थी ।
कुछ दिनों के बाद रानी ने एक सुन्दर पुत्री को जन्म दिया। वह रूप में साक्षात् लक्ष्मी के समान थी, इसलिए उसके माता पिता उसे देखकर बहु आनन्दित हुए। उसके पूर्व जन्म के पति कुबेर ने उस समय प्रसनतापूर्वक सुवर्ण की वृष्टि की, इसलिए उसका नाम कनकवती रक्खा गया। उसके लालन पालन के लिए कई धात्रियाँ नियुक्त कर दी गयी । जब कनकवती धीरे-धीरे बड़ी हुई तब राजा ने शीघ्र ही उसकी शिक्षा का प्रबन्ध किया। उसकी बुद्धि बहुत ही तीव्र थी, इसलिए उसने थोड़े ही दिनों में अनेक विद्याकला तथा व्याकरण, न्याय, छन्द, अलंकार और काव्यादिक शास्त्रों में निपुणता प्राप्त कर ली। वाणी में तो वह मानो साक्षात् सरस्वती ही थी । गायन वादन तथा अन्यान्य कलाओं में भी वह अपनी सानी रखती थी। कनकवती ने क्रमशः किशोरावस्था अतिक्रमण कर युवावस्था में पदार्पण किया। राजा हरिश्चन्द्र को अब उसके ब्याह की फिक्र हुई । इसलिए उन्होंने उसके अनुरूप वर की बहुत खोज की, किन्तु वे जैसा चाहते थे, वैसा वर कहीं भी दिखायी न दिया । अन्त में उन्होंने स्वयंवर करने का निश्चय किया। उनके आदेश से शीघ्र ही एक