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श्री नेमिनाथ-चरित * 107 इतना कह प्रभावती वसुदेव की खोज में निकल पड़ी और अपनी अद्भुत विद्याओं के प्रभाव से श्रावस्ती में जाकर वहां से तुरन्त वसुदेव को सोमश्री के पास ले आयी। सोमश्री उन्हें पाकर उसी तरह प्रसन्न हो उठी, जिस प्रकार कंजूस खोया हुआ धन या अन्धा आंखे पाकर प्रसन्न होता है। वसुदेव को भी कम आनन्द न हुआ, किन्तु यहां रहने में मानसवेग के उपद्रव का भय था, इसलिये वे गुप्त रूप से वहां पर रहने लगे।
__ परन्तु यह समाचार अधिक दिनों तक छिपा न रह सका। मानसवेग को इसका पता चलते ही उसने वहां आकर वसुदेव को गिरफ्तार कर लिया। इससे बड़ा ही कोलाहल मचा। चारों और से अनेक विद्याधर दौड़ आये और उन्होंने वसुदेव को छुड़ा दिया। किन्तु मानसवेग ने इतने से ही वसुदेव का पीछा न छोड़ा। वह उनसे झगड़ा करने लगा। अन्त में वह विवाद यहां तक बढ़ गया, कि उसका निराकरण कराने के लिए उन दोनों को वैजयन्ती नगरी के राजा बलसिंह के पास जाना पड़ा। उस समय कुमार के शत्रु सूर्पकादिक भी वहां आ पहँचे थे। मानसवेग ने कहा-"पहले मेरा विवाह सोमश्री से होना स्थिर हुआ था, किन्तु इसने छलपूर्वक उससे व्याह कर लिया, इसीलिए मैं उसे हरण कर लाया था। अब यह फिर गुप्तरूप से उसके पास आकर रहता है। ऐसा न होना चाहिए और सोमश्री मेरे ही अधिकार में रहनी चाहिए। वेगवती का विवाह मैंने खुशी से इसके साथ कर दिया है, इसलिए उस विषय में मुझे कोई आपत्ति नहीं है।" - वसुदेव ने कहा-“मानसवेग की बातें बिलकुल झूठी हैं। सोमश्री का विवाह उसके पिता ने स्वेच्छापूर्वक मेरे साथ किया हैं, मैंने उसमें किसी प्रकार का छल नहीं किया। उसका हरण कर इसी ने अन्याय किया है। वेगवती का विवाह भी इसकी इच्छा या अनुमति से नहीं हुआ। उसने स्वयं छलपूर्वक मुझसे विवाह किया था। यह सब बातें अनेक लोगों को मालूम है और इनके समर्थन में यथेष्ट प्रमाण भी दिये जा सकते है।"
___ वसुदेव की इन बातों से मानसवेग की असत्यता स्पष्ट रूप से प्रमाणित . हो गयी। उस ने जब देखा कि इस प्रकार मैं वसुदेव को नीचा न दिखा सकूँगा, तब वह नीलकंठ और सूर्पकादिक खेचरों को अपने साथ ले, उनसे युद्ध करने