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श्री नेमिनाथ-चरित * 105 हुआ। उसने एक बार मेरे पिता को डस लिया, किन्तु मैंने वह विष हरण कर उनके प्राण बचा दिये। इसके बाद उस सर्प को प्रति बोध की प्राप्ति हुई, फलत: मृत्यु के बाद वह बल नामक देव हुआ।
एक बार ऋषिदत्ता का रूप धारण कर मैं श्रावस्ती नगरी में गयी और वहां पर मैंने उस बालक को राजा के सामने उपस्थित किया, किन्तु वे उस बात को भूल गये थे, इसलिए उन्होंने उसको लेने से इन्कार कर दिया। ____ अब मैं चिन्ता में पड़ गयी। कोई दूसरा उपाय न देखकर मैंने उस बालक को वहीं राजा के पास छोड़ दिया। इसके बाद आकाश में जाकर मैंने कहा"हे राजन् ! मैं वही ऋषिदत्ता हूं जिसके साथ आपने तपोवन में भोग किया था। यह बालक आप ही का पुत्र है। इसका जन्म होते ही मेरी मृत्यु हो गयी थी। मृत्यु के बाद मैं देवी हुई। मोह के कारण उस अवस्था में भी हरिणी बनकर मैंने इसका लालन पालन किया है। इसीलिये इसका नाम एणी पुत्र पड़ा है। हे राजन् ! इसे आप स्वीकार कीजिए और अपने वचनानुसार अपना उत्तराधिकारी बनाइए।" .
मेरी यह आकाशवाणी सुनकर राजा शिलायुध ने उस बालक को अपने पास रख लिया और कुछ दिनों के बाद उसे अपना राज्य देकर उन्होंने दीक्षा ले ली। इसके बाद एक दिन एणी पुत्र ने सन्तान के निमित्त अट्ठमतप कर मेरी आराधना की, फलत: मैंने उसे एक पुत्री दी। उसी का नाम प्रियंगुमंजरी रक्खा गया है। . - प्रियंगुमंजरी के स्वयंवर में एणी पुत्र ने अनेक राजाओं को निमन्त्रित किया, परन्तु प्रियंगुमंजरी ने उनमें से एक को भी पसन्द न किया। इससे वे सब असन्तुष्ट हो, युद्ध करने पर उतारू हुए किन्तु मेरी सहायता से अकेले एणी पुत्र ने ही उन सबों को मार भगाया। अब मुझे मालूम हुआ है कि प्रियंगुमंजरी तुम्हारे साथ ब्याह करना चाहती है। उसने इसके लिए अट्ठमतप कर मेरी आराधना की थी। कल उसकी ओर से जो द्वारपाल तुम्हें बुलाने आया था, वह मेरी ही सलाह से आया था, किन्तु अज्ञानता के कारण तुमने उसकी उपेक्षा की। अब मेरे हुक्म से वह द्वारपाल पुन: तुम्हारे पास आये, तो प्रियंगुमंजरी के पास जाने में तुम किसी प्रकार का संकोच मत करना और उससे