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104 : कंस का जन्म
बुलाकर उससे क्रीड़ा का प्रस्ताव किया। ऋषिदत्ता इसके लिए राजी हो गयी, फलतः शिलायुध ने उसके साथ भोगकर अपनी कामपिपासा तृप्त की ।
ऋषिदत्ता को यह कार्य करवाते समय पहले तो कोई विचार न आया, किन्तु बाद में वह इस चिन्ता से व्याकुल हो उठी, कि कही मेरे गर्भ न रह जाय। इसलिए उसने राजा शिलायुध से कहा - " राजन् ! मैं ऋतुस्नाता हूं, यदि मुझे गर्भ रह जायगा तो मेरी क्या अवस्था होगी ? यह तो आप जानते ही हैं कि मैं अभी अविवाहिता हूं !"
शिलायुध ने कहा – “यदि तुम्हें गर्भ रह जाय और पुत्र उत्पन्न हो, तो तुम उसे मेरे पास ले आना। मैं इक्ष्वाकु वंश के शतायुध राजा का पुत्र शिलायुध हूँ। श्रावस्ती नगरी में मेरी राजधानी हैं। मैं वचन देता हूं कि यदि तुम अपने पुत्र को मेरे पास लाओगी तो मैं उसी को अपना उत्तराधिकारी बनाऊँगा । "
उन दोनों में इस तरह की बातचीत हो ही रही थी, कि इतने ही में शिलायुध की बिछुड़ी हुई सेना वहां आ पहुंची। इसलिए शिलायुध ऋषिदत्ता से विदा ग्रहण कर, घोड़े पर सवार हो, अपनी राजधानी में लौट आये।
शिलायुध के चले जाने पर ऋषिदत्ता ने सारा हाल अपने पिता से कह सुनाया, सुनकर वे चुप हो गये । न तो उन्होंने कुछ भला ही कहा, न बुरा ही। ऋषिदत्ता ने यथासमय एक पुत्र को जन्म दिया । किन्तु इस बा के भाग्य में माता की प्रेममयी गोद में खेलना बदा न था । अत एव प्रसूती रोग से ऋषिदत्ता की शीघ्र ही मृत्यु के बाद ऋषिदत्ता एक देवी के रूप में उत्पन्न हुई और ज्वलन प्रभ नामक नागकुमार की पटरानी हुई। हे वसुदेव कुमार ! मैं वही देवी हूं और आज एक खास कार्य के लिये तुम्हारे पास आयी हूँ ।"
इतना कहने के बाद उस देवी ने फिर वही कथा कहनी आरम्भ की। उसने कहा—ऋषिदत्ता की मृत्यु के बाद उसके पिता अमोघरेतस उस बालक को लेकर साधारण मनुष्य की भांति विलाप करने लगे । वात्सल्य भाव के कारण मैं भी अधिक समय तक उससे दूर न रह सकी और ज्वलनप्रभ की भार्या होने पर भी एक हरिणी का रूप धारण कर मैं उसका लालन पालन करने लगी। इसी कारण से उस बालक का नाम एणी पुत्र पड़ा।
उधर कौशिक की मृत्यु होने पर वह मेरे पिता के आश्रम में दृष्टिविष