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102 * कंस का जन्म मन्दिर का मुख्य द्वार जो खोलेगा, वही बन्धुमती का पति होगा। इसलिए बन्धुमती अब तक कुमारी ही बैठी है।"
ब्राह्मण के मुख से इस मन्दिर और उससे सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों का वृत्तान्त सुनकर वसुदेव ने सन्तोष प्रकट किया। इसके बाद उन्होंने उस मन्दिर के मुख्य द्वार को जाकर देखा और उसे बिना किसी परिश्रम के ही खोल डाला। यह समाचार सुनकर कामदत्त ने उनके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया।
विवाह के समय वर को देखने के लिए राजपुत्री प्रियंगुमञ्जरी भी अपने पिता के साथ वहाँ आयी। उसने वसुदेव को देखा और देखते ही.वह उन पर मुग्ध हो गयी। उसने गुप्तरूप से एक द्वारपाल को वसुदेव के पास भेजा और उन्हें पिछली रात में अपने मकान पर आने के लिए निमन्त्रित किया। वसुदेव शायद उसका अनुरोध मान लेते, किन्तु उन्होंने नाटक देखते हुए उसी समय सुना कि,–“नमिपुत्र वासव विद्याधर था। उसके वंश में और भी वासव हुए, जिन में एक पुरूहुत भी था। एक दिन वह हाथी पर चढ़कर सैर करने निकला और गौतम ऋषि के आश्रम में जा पहुँचा। वहां पर गौतम पत्नी अहिल्या को देखकर वह कामान्ध हो गया और उसके साथ उसने छलपूर्वक विहार किया। विद्याहीन पुरूहुत का यह कार्य देखकर गोतम ऋषि आगबबूला हो उठे और उन्होंने उसे नपुंसक बना दिया। यह वृत्तान्त सुनकर वसुदेव सम्हल गये और उन्होंने प्रियगुमञ्जरी के यहां जाने का विचार छोड़ दिया।
इसके बाद रात्रि के समय जिस समय वे बन्धुमती के साथ शयन गृह में सो रहे थे, उस समय अर्ध निद्रित अवस्था में उन्होंने एक देवी को अपने सामने खड़ी देखा। देखते ही चौककर उठ बैठे और वे अपने मन में कहने लगे कि मैं यह सत्य देख रहा हूं या स्वप्न ? इतने ही में उस देवी ने कहा-“हे वत्स! तूं क्या देख रहा है ?"
वसुदेव इसके उत्तर में कुछ कहने ही वाले थे, कि वह उनका हाथ पकड़ कर उन्हें अशोक वाटिका में लिवा गयी। वहां पर उसने कहा-"इस भरतक्षेत्र के चन्दनपुर नामक नगर में अमोघरेतस नामक एक राजा राज्य करता था। उसके चारुमती नामक एक रानी और चारुचन्द्र नामक एक पुत्र था उसी