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श्री नेमिनाथ-चरित * 101 यह सुनकर कामदेव उस महिष को श्रावस्ती में ले गया और वहां पर राजा से भी प्रार्थना कर उसने उसे अभयदान दिलाया। तब से वह महिष निर्भय होकर नगर में विचरण करने लगा। एक दिन राजकुमार मृगध्वज ने उसका एक पैर काट डाला। राजा को यह हाल मालूम होने पर वह सख्त नाराज हुए और उन्होंने कुमार को बहुत कुछ भला बुरा कहा। इससे कुमार को वैराग्य सा आ गया और उसने उसी दिन दीक्षा ले ली। इसके अठारहवें दिन उस महिष की मृत्यु हो गयी। तत्पश्चात बाइसवें दिन मृगध्वज को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। इस अवसर पर अनेक सुर, असुर, विद्याधर और राजाओं ने उनकी सेवा में उपस्थित हो उन्हें वन्दन किया और उन्होंने सब को धर्मोपदेश दिया। उपदेश समाप्त होने पर राजा जितशत्रु ने पूछा- “हे प्रभो! उस महिष के साथ आप का कौन ऐसा, वैर था, जिससे आपने उसका पैर काट डाला था?"
केवली ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-“एक समय इस देश में । अश्वग्रीव नामक एक अर्ध चक्रवर्ती राजा था। उसके मन्त्री का नाम हरिश्मश्रु था। वह नास्तिक था, इसलिए सदा धर्म की निन्दा किया करता था और राजा आस्तिक था, इसलिए वह सदा धार्मिक कार्यों का आयोजन किया करता था। इस प्रकार के विरोधी कार्यों से उन दोनों का विरोध उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। अन्त में वह दोनों त्रिपृष्ट और अचल द्वारा मारे गये और सातवें नरक के अधिकारी हुए। वहां से निकलकर वे दोनों न जाने कितनी योनियों में भटकते रहे। अन्त में अश्वग्रीव का जीव मैं तुम्हारा पुत्र हुआ और हरिशम्भु का जीव भैंसे के रूप में उत्पन्न हुआ। पूर्व जन्म के वैर के कारण मैंने उसका पैर काट डाला। मृत्यु के बाद वहीं लोहिताक्ष नामक असुर हुआ है, जो इस समय मुझे वन्दन करने आया है। इस प्रकार हे राजन् ! यह संसार बहुत ही विचित्र है। यहां पर कोई भी काम बिना कारण के नहीं होता। मनुष्य अज्ञान के कारण इन बातों को समझ नहीं सकता, इसलिए वह कुछ का कुछ मान बैठता है।"
उसके बाद लोहिताक्ष नामक उस असुर ने मुनि को वन्दन कर मृगध्वज ऋषि, कामदेव श्रेष्ठी और तीन पैर वाले महीष की रत्नमय मूर्तियाँ बनवायी है। उस कामदेव सेठ के वंश में इस समय कामदत्त नामक एक सेठ है और उसके बन्धुमती नामक पुत्री है। किसी ज्ञानी ने कामदत्त को बतलाया है, कि इस