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श्री नेमिनाथ-चरित * 99 दीनता पूर्वक कहा-“हे स्वामिन् ! हम नहीं जानते कि यह कौन हैं ? हमने इन पर जो कुछ अत्याचार किया है, वह विद्युतदंष्ट्र के आदेश से ही किया है। आप हमारा यह अपराध क्षमा कीजिए।
धरणेन्द्र ने कहा-“मैं इन मुनिराज के केवलज्ञान का महोत्सव करने आया हूँ। तुम लोगों ने बड़ा ही बुरा काम किया है। वास्तव में तुम बड़े पापी हो-बड़े अज्ञानी हो। मैंने तुम्हें जो दण्ड दिया है, वह सर्वथा उचित ही है, किन्तु तुम्हारी विनय अनुनय सुनकर मुझे फिर तुम पर दया आती है। खैर, तुम्हारी विद्याएँ फिर सिद्ध हो सकेगी, किन्तु इसके लिए तुम्हें बड़ी चेष्टा करनी पड़ेगी। साथ ही यदि तुम लोग भूलकर भी कभी तीर्थकर, साधु और श्रावकों से द्वेष करोगे, तो क्षणमात्र में तुम्हारी विद्याएँ नष्ट हो जायगी। पापी विद्युतइंष्ट्र का अपराध तो बड़ा ही भयंकर और अक्षम्य है। उसे रोहिणी आदि विद्याएँ किसी भी अवस्था में सिद्ध न होगी। उसके वंशवालों को भी इन विद्याओं से वंचित रहना पड़ेगा। हां, यदि उन्हें किसी साधु या महापुरुष के दर्शन हो जायेंगे, तो उसके प्रभाव से यह अभिशाप नष्ट हो जायगा और उस अवस्था में वे इन विद्याओं को प्राप्त कर सकेंगे।" ___ इतना कह धरणेन्द्र अपने वासस्थानं को चले गये। विद्युतदृष्ट्र के वंश में आगे चलकर केतुमती नामक एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसका ब्याह पुंडरीक वसुदेव के साथ हुआ। उसने विद्याएँ सिद्ध करने के लिए बड़ी चेष्टा की, किन्तु धरणेन्द्र के अंभिशाप से कोई फल न हआ। उसी वंश में मेरा जन्म हुआ और मैंने भी विद्याएँ सिद्ध करने के लिए बड़ा उद्योग किया। किन्तु यदि सौभाग्यवश आपका दर्शन न होता तो मेरा भी वह उद्योग कदापि सफल न होता। मेरा नाम बालचन्द्रा है। आपकी ही कृपा से मेरी विद्याएँ सिद्ध हुई हैं, इसलिए मैं आपसे व्याह कर सदा के लिए आपकी दासी बनना चाहती हैं। इसके अलावा आप मुझसे जो मागें, वह भी मैं देने के लिए तैयार हूँ।
यह सुनकर वसुदेव ने कहा—“हे सुन्दरी ! क्या तुम वेगवती को विद्या दे सकती हो? मुझे उसकी आवश्यकता है।"
बालचन्द्रा ने सहर्ष विद्या वेदवेती को दे दी। इसके बाद वह गगनवल्लभपुर को चली गयी और वसुदेव अपने वासस्थान-तापस आश्रम को लौट आये।