________________
98 * कंस का जन्म
मिल गयी। मैंने उसे आप की खोज करने का काम सौंपा और वही आप को पर्वत से गिरते समय गोंचकर मेरे पास ले आयी है । हे नाथ! इस समय जहां हम लोग खड़े हैं और जहां हम लोगों का यह पुनर्मिलन हुआ है, वह स्थान पञ्चनन्द हीमन्त तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। इसका नाम तो आप ने पहले भी सुना होगा । "
वेगवती की यह बातें सुनकर वसुदेव को परम सन्तोष हुआ। उन्होंने वेगवती को बार-बार गले लगाकर अपने आन्तरिक प्रेम का परिचय दिया । इसके बाद वे दोनां जन एक तापस के आश्रम में गये और उसकी आज्ञा प्राप्त कर वहीं पर निवास करने लगे ।
एक दिन वसुदेव और वेगवती नदी के तटपर बैठे हुए प्रकृति के अपूर्व दृश्यों का रसास्वादन कर रहे थे। उसी समय उन्हें नदी में एक कन्या दिखायी दी, जो नागपास से बँधी हुई थी और उन्हीं की और बहती हुई चली आ रही थी। यह देख, वेगवती ने वसुदेव से उसे बचाने की प्रार्थना की, अत: वे उसे बाहर निकाल आये और बन्धनमुक्त कर उसकी मूर्च्छा दूर की । स्वस्थ होने पर कन्या ने तीन प्रदक्षिणाएँ देकर वसुदेव से कहा - " हे महापुरुष ! आपके प्रभाव से मेरी विद्याएं सिद्ध हुई हैं, इसलिए मैं आपको अनेकानेक धन्यवाद देती हूँ। शायद आप मेरा परिचय जानने लिये उत्सुक होंगे, इसलिए मैं आप को अपना वृत्तान्त सुनाती हूँ, सुनिए—
वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में गगनवल्लभपुर नामक एक नगर था । उसमे नमिवंशोत्पन्न विद्युतद्दंष्ट्र नामक एक राजा राज्य कर्ता था। एक बार वह पश्चिम महाविदेह में गया। वहां पर एक प्रतिमाधारी मुनि को देखकर उसने अपने विद्याधरों से कहा - " यह मुनि तो बड़ा ही उपद्रवी मालूम होता है, इसलिए इसे वरुण पर्वत पर ले जाकर मार डालो । उसकी यह बात सुनकर विद्याधरों ने उसे बहुत मारा किन्तु शुक्लध्यान के योग से उस मुनि को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। फलतः केवलज्ञान की महिमा करने के लिए धरणेन्द्र वहां पर उपस्थित हुए । उन्होंने मुनि के विरोधियों पर क्रोध कर उन्हें विद्याभ्रष्ट बना दिया ।
अपनी यह अवस्था देखकर सब विद्याधर गिड़गिड़ाने लगे। उन्होंने