________________
श्री नेमिनाथ-चरित * 97
नाथ! हे नाथ! कहती हुई लता की भांति उनके कंठ में लिपट आयी। वसुदेव भी उसे आलिंगन कर नाना प्रकार के मधुर वचनों द्वारा उसे सान्त्वना देने लगे। जब वह शान्त हुई तब उन्होंने उससे पूछा- “प्रिये! तुम्हें मेरा पता किस प्रकार मिला?" तुमने मुझे कैसे खोज निकाला?"
वेगवती ने कहा- “हे नाथ! शय्या से उठने पर जब मैंने आपको न देखा तब मैं व्याकुल हो उठी और आपके वियोग से दुःखित हो, करुण क्रन्दन करने लगी। इतने में प्रज्ञप्ति विद्या ने मुझ से आपके हरण और पतन का हाल बतलाया। इसके बाद आप का क्या हआ, या आप कहाँ गये यह मुझे किसी तरह मालूम नं हो सका। मैंने सोचा कि शायद आप किसी ऋषि के पास गये होंगे और उसी के प्रभाव से प्रज्ञप्ति विद्या आपका हाल बतलाने में असमर्थ है।
इसके बाद मैं बहुत दिनों तक आपकी राह देखती रही किन्तु जब आप वापस न आये, तब मैं राजा की आज्ञा लेकर आपको खोजने के लिए निकल पड़ी। थोड़े ही दिनों के अन्दर मैं ने न जाने कहाँ कहां की खाक छान डाली। अन्त में मदनवेगा के साथ सिद्धायतन की यात्रा करते हुए मैंने आपको देखा। और उसी समय से अदृश्य रहकर मैंने आपका पीछा किया। सिद्धायतन से लौटने पर जिस समय आप के मुख से मेरा नाम निकला, उस समय भी मैं वहीं उपस्थित थी। उस समय आप का प्रेम देखकर आप के मुख से अपना नाम सुनकर मेरा कलेजा बल्लियों उछलने लगा। मैं उस समय अपने आपको भूल गयी। मैं उसी समय अपने को प्रकट भी कर देती, किन्तु इसी समय सूर्पणखा ने मकान में आग लगाकर आप का हरण कर लिया। _. अब उसका पीछा करने के सिवा मेरे लिये और कोई चारा न था। मैंने मानसवेग का रूप धारण कर उसका पीछा किया, किन्तु वह विद्या और औषधियों में मुझ से चढ़ी बढ़ी थी, इसलिए मुझे देख, उसने अपने पीछे न आने का संकेत किया। अपनी निर्बलता के कारण उसके मुकाबले में मुझे जब दब जाना पड़ा। मैं घबड़ा कर वहां से एक चैत्य की और भागी और . असावधानी के कारण एक साधु को लांघ गयी। इस पातक से मेरी विद्याएँ भी नष्ट हो गयी और मैं बहुत निराश हो गयी। इतने ही में मुझे मेरी धाय माता