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96 : कंस का जन्म
चुकाने के लिये व्याकुल हो रही थी । इसलिए वह इसी समय मदनवेगा का रूप धारण कर वहां आ पहुंची और मन्त्रबल से मकान में आग लगा कर वसुदेव को हरण कर ले गयी । उसने उन्हें मार डालने की इच्छा से आकाश में खूब ऊँचे ले जाकर वहां से उन्हें छोड़ दिया, किन्तु जिस पर भगवान की दया होती है, उसे कौन मार सकता है ? वसुदेव राजगृह के निकट घास की एक ढेरी पर आ गिरे, जिससे उनका बाल भी बांका न हुआ।
आस पास के लोगों के मुंह से जरासन्ध का नाम सुनकर वसुदेव समझ गये कि यह राजगृह है। वे वहां से उठकर जुवारियों के एक अड्डे में गये और वहां बात की बात में एक करोड़ रुपये जीतकर उन्होंने वह धन याचकों को दान दे दिया। उनका यह कार्य देखकर राजकर्मचारियों ने उन्हें बन्दी बनाकर, राजा के पास ले जाने की तैयारी की। यह देख, वसुदेव ने कहा – “भाई ! मैंने तो कोई अपराध किया ही नहीं है, फिर तुम लोग मुझे क्यों कैद कर रहें हो ?"
राजकर्मचारियों ने कहा - " एक ज्ञानी ने हमारे राजा जरासन्ध को बतलाया है कि प्रात:काल में करोड़ रुपये जीतकर जो याचकों को दान देगा, उसके पुत्र द्वारा तुम्हारी मृत्यु होगी। इसी से हम लोगों ने आपको कैद किया है। अब राजा के आदेशानुसार आपको प्राणदण्ड दिया जायगा । "
इतना कह वे लोग वसुदेव को चमड़े के एक थैले में बन्दकर एक पर्वत पर ले गये और वहां से उन्होंने उन्हें नीचे ढकेल दिया । किन्तु वेगवती की धात्री ने उन्हें बीच ही में गोंच कर उन के प्राण बचा लिये। इसके बाद वह उन्हें वेगवती के पास ले जाने लगी। किन्तु वसुदेव तो चमड़े के थैले में बन्द थे, इसलिये उन्हें यह न मालूम हो सका कि मुझे कौन लिये जा रहा है । वे अपने मन में कहने लगे कि शायद चारुदत्त की तरह मुझे भी भारण्ड ने पकड़ लिया है और वहीं मुझे कहीं लिये जा रहा है।
थोही ही देर में वह धात्री पर्वत पर जा पहुँची और वहां पर उसने वसुदेव को जमीन पर रख दिया । इतने ही में वसुदेव ने थैले के एक छिद्र से देखा तो उन्हें वेगवती के पैर दिखायी दिये । वह छूरी से थैले को काट रही थी। थैला काटते ही वसुदेव उसमें से बाहर निकल आये और वेगवती — “हे