SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . श्री नेमिनाथ-चरित * 93 बाद उसने देवी का प्रसाद कहकर वसुदेव को मदिरा भी पिला दी। इससे वसुदेव ने उन्मत्त हो वह रात आनन्दपूर्वक व्यतीत की। सुबह नींद खुलने पर वसुदेव ने देखा, कि सोमश्री के बदले उनकी शैय्यापर कोई दूसरी ही सुन्दरी! तुम कौन हो? तुम कौन हो? मेरी सोमश्री कहाँ है?" उस सुन्दरी ने मुस्कुरा कर कहा-"प्राणनाथ! दक्षिण श्रेणी में सुवर्णाभ नामक एक नगर है। वहां के राजा का नाम चित्र और रानी का नाम अंगारवती है। उन्हींकी मैं कन्या हूँ। मेरा नाम वेगवती है। मेरे एक भाई भी है। जिसका नाम मानसवेग है। मानसवेग को राज्यभार सौंपकर मेरे पिता ने दीक्षा ले ली है। मेरा भाई दुराचारी है और उसीने आपकी स्त्री का हरण किया है। उसने मेरे द्वारा उसे फुसलाने की बड़ी चेष्टा की, किन्तु उसने एक न सुनी। उलटे उसी ने मुझको अपनी सखी बनाकर आपको लाने के लिए यहां पर भेजा। तदनुसार मैं यहां आयी, किन्तु आपको देखकर मैं आप पर मुग्ध हो गयी, इसलिए मैंने सोमश्री का सन्देश आपसे न कहकर, उसका रूप धारणकर छलपूर्वक आप से व्याह कर लिया है। हे नाथ! यही सच्च वृत्तान्त है। मुझे आशा है कि आप मेरी यह धृष्टता क्षमा करेंगे।" . . वसंदेव.ने अब ओर कोई उपाय न देख, उसका अपराध क्षमा कर दिया। सुबह वेगवती को देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। वसुदेव की आज्ञा से उसने सोमश्री के हरण का समाचार लोगों को कह सुनाया। एक दिन वसुदेव जब अपनी इस पत्नी के साथ थे, तब उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो मानसंवेग खेचर उन्हें उठाये लिये जा रहा है। शीघ्र ही उन्होंने सावधान होकर उसके एक ऐसा मुक्का जमाया, कि वह उसकी चोट से तिलमिला उठा और वसुदेव को उसने गंगा की धारा मैं फैंक दिया। संयोगवश वसुदेव चण्डवेग नामक एक विद्याधर के कन्धे पर जा गिरे। उस समय वह विद्याधर गंगा में खड़ा-खड़ा कोई विद्या सिद्ध कर रहा था। वसुदेव ज्यों ही उसके कन्धे पर गिरे त्यौंही वह विद्या सिद्ध हो गयी। यह देखकर उस विद्याधर ने कहा-“हे महात्मन्! आप मेरी विद्यासिद्धि में कारणरूप हुए हैं, इसलिए कहिए, मैं अब आपकी क्या सेवा करूं? आपको क्या दूं?" कुमार ने कहा-“हे विद्याधर ! यदि तुम वास्तव में प्रसन्न हो और मुझे
SR No.002232
Book TitleNeminath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy