SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 56 Uvalaiya Suttam Sh. 16 तेसि णं भगवंताणं आयावाया वि विदिता भवंति परवाया विदिता भवंति आयावायं जमइत्ता नलवण-मिव मत्तमातंगा अच्छिद्दपसिण-वागरणा रयण-करंडग-समाणा कुत्तिआवणभूआ पर-वादियपमद्दणा दुवाल-संगिणो समत्त-गणि-पिडग-धरा सव्वक्खर-सण्णिवाइणो सव्वभासाणुगामिणो अजिणा जिणसंकासा जिणा इव अवितहं वागरमाणा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरंति ॥ १६ ॥ वे स्थविर भगवान् अपने आत्मवाद सिद्धान्तों के विभिन्न पक्षों के भी ज्ञाता-जानकार थे। वे दूसरों के मत-मतान्तरों के भी वेत्ता थे । वे स्वसिद्धान्तों को पुनः-पुनः आवत्ति या अभ्यास से सम्यक्तया जान कर कमलवन में मदोन्मत्त हाथी के समान थे, वे अछिद्र-निरन्तर प्रश्नोत्तर करने में सक्षम थे, वे रत्नों की पिटारी के समान सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र आदि दिव्य रत्नों से परिपूर्ण थे। वे कुत्तिकापण-ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक में प्राप्त होने वाली वस्तुओं के समान अपने लब्धि-वैशिष्ट्य के कारण सभी इच्छित अर्थ-प्रयोजन संपादित करने में सक्षम थे। दूसरों के मत-मतान्तरों या सिद्धान्तों का युक्ति-पुरस्सर सर्वथा खण्डन करने में समर्थ थे। आचारांग सूत्रकृतांग आदि बारह अंगों के वेत्ता-जानकार थे । समस्त गणि-पिटक-आचार्य का पिटक, प्रकीर्णक, श्रुतादेश, श्रुत नियुक्ति आदि सर्व जिन-निर्ग्रन्थ-प्रवचन के धारक थे, वे अक्षरों के समस्त प्रकारों के संयोगों के ज्ञाता थे, समस्त भाषाओं के अनुगामी-विशिष्ट-ज्ञाता थे, वे जिन-सर्वज्ञ न होते हुए भी सर्वज्ञ के समान थे। वे सर्वज्ञों के सदृश अवितथ–सत्य या यथार्थ प्ररूपणा करते हुए संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विहार करते थे ॥ १६ ॥ These monks knew their own tenets as well as the tenets of others. Having thoroughly known their own doctrines through repetition, they roamed in their spiritual world like an infatuated elephant in a lotus forest, always questioning and answering among themselves. They were like a cluster
SR No.002229
Book TitleUvavaia Suttam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rameshmuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1988
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy