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Uvaiaiya Suttam Su. 14
अहा-पडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । १३।।
. . उसके बाद अगले दिन, रात बीत जाने पर, प्रभात हो जाने पर, नीले और अन्य कमलों की कोमल पंखुड़ियाँ सुहावने रूप में खिल जाने पर, हरिणों की सुकुमार आँखें खुल जाने पर, ऐसे उजले प्रभात में लाल अशोक, किंशुकपलाश, तोते की चोंच, धुंघची के आधे भाग के समान लालिमा लिये हुए जलाशय के कमल वन को विकसित करने वाले, सहस्र किरणयुक्त, दिन के प्रादुर्भावक, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के उदित होने पर, श्रमण भगवान् महावीर जहाँ चम्पा नगरी थी, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पधारे, पधार कर श्रमणचर्या के समुचित-अनुरूप आवास स्थान ग्रहण कर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विराजे ॥१३॥
When the darkness of the night was to bid good-bye to the approaching light, when the lotus-buds started blossoming. and the deer opening their tender eyes, in the morning, when the sun, which had the brilliance of red aśoka, or palāśa flower, or the redness of the beak of a parrot, or the red half of the guñjā fruit, which woke up the forest of lotuses in the tanks, with thousands of rays, the Lord of the day, emitting burning sticks, appeared in the sky, Bhagavān Mahāvīra stepped in into the Purnabhadra temple outside the city of Campā. There he lodged in a shed which was congenial to the practices of the restrained monks, enriching his soul with restraint and penance. 13
भगवान के अंतेवासी
Disciples of Bhagavan Mahavira
। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे समणाः भगवंतो अप्पेगइआ उग्गपठवाइया भोग