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उववाइय सुतं सू० ४३
सव्व
द्रगर तुसारोक्खीरहार वण्णा उत्ताणयछत्तसंठाणसंठिया ज्जुणसुवण्णयमई अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिक्कंकडच्छाया समरीचिया सुप्पभा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा । ईसीपब्भाराए णं पुढवीए सीयाए जोयम लोगं । तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए तस्स णं गाउअस्स जे से उवरिल्ले छभागिए तत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादीया अपज्जवसिया अणेगजाइज रामरणजोणिवे यणसंसार कलंकली भावपुर्णब्भवगब्भवासवसहीपवंचसमइक्कंता सासयमणागयमद्धं चिट्ठति ॥ ४३ ॥
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ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी शंख के तल जैसी निर्मल, सौल्लिय पुष्प - एक प्रकार का फूल, मृणाल - कमल नाल, जलकण, तुषार, गाय के दूध, तथा हार के समान श्वेतवर्ण युक्त हैं । वह उलटे छत्र के आकार के समान आकार में अवस्थित है, अर्थात् उलटे किये हुए छत्र के सदृश उस का आकार है । वह अर्जुन स्वर्ण - अत्यधिक मूल्यवान् श्वेत धातु विशेष जैसी द्युति - कान्ति लिये हुए है । वह आकाश अथवा स्फटिक के समान स्वच्छ, श्लक्ष्ण - कोमल परमाणु स्कन्धों
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से निष्पन्न होने के कारण कोमल तन्तुओं से बने हुए वस्त्र के सदृश मुलायम, लष्ट - सुन्दर आकृति युक्त, घृष्ट - तेज शान पर घिस कर मानों पाषाण के सदृश संवारी हुई सी, सुकुमार शान से संवारी हुई सी अथवा प्रमार्जनिका से शोघी हुई सी, नीरज -- रजः रहित, निर्मल-मल से रहित, आर्द्रमल से रहित, कलङ्क से रहित, शोभायुक्त, समरीचिका - सुन्दर किरणों से - प्रभा से युक्त, प्रासादीय- मन को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय — देखने योग्य अर्थात् जिसे निहारते हुए नयन अघाते न हों, अभिरूव— मनोज्ञ, अर्थात् मन को अपने में रमा लेने वाली एवं प्रतिरूप - मन में बस जाने वाली हैं। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के तल से उत्सेधांगुल - माप विशेष, द्वारा एक योजन पर लोकान्त है । उस योजन का जो ऊपर का कोस है, उस कोस का जो ऊपर का छठा भाग है, वहाँ सिद्ध भगवान् हैं, जो सादिआदि सहित, मोक्ष प्राप्ति के काल की अपेक्षा से आदि सहित है, अपर्यवसित — अन्त रहित - अनन्त हैं, जो जन्म, जरा - बुढ़ापा, मृत्यु प्रधान आदि अनेक योनियों की वेदना तथा संसार के भीषण दुःख में पर्यटन से पुनः पुनः होने वाले, गर्भवास में निवास के प्रपञ्च - विस्तार अर्थात् बार-बार