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उववाइय सुत्तं सू० ४३
गौतम : से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ–ते णं तत्य सिद्धा भवंति सादीया अप्पज्जवसिया जाव...चिट्ठति ?
महावीर : गोयमा ! से जहाणामाए बीयाणं अग्गिदड्डाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती ण भवइ एवामेव सिद्धाणं कम्मबीए दड्डे पुणरवि जम्मुप्पत्ती ण भवइ । से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-ते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादोया अपज्जवसिया जाय... चिट्ठति।
गौतम : भगवन् ! आप किस आशय से इस प्रकार फरमाते हैं वहां वे सिद्ध होते हैं, सादि-मोक्ष प्राप्ति के काल की अपेक्षा से आदि सहित, अपर्यवसित-अन्तरहित, यावत् शाश्वत काल पर्यन्त स्थित रहते हैं ?
महावीर ः हे गोतम ! जैसे अग्नि से सर्वथा जले हुए बीजों की पुनः अंकुरों के रूप में समुत्पत्ति नहीं होती है उसी प्रकार कर्म-बीजों के सर्वथा जल जाने के कारण सिद्धों की भी फिर जन्म रूप उत्पत्ति नहीं होती है। इसलिये हे गौतम ! में इसी अभिप्राय से ऐसा कह रहा हूँ कि वे वहाँ सिद्ध होते हैं, सादि-आदि सहित, अपर्यवसित-अन्तरहित यावत् शाश्वत काल पर्यन्त स्थित रहते हैं।
Gautama : Bhante ! Why do you say so, that there he is perfected, with a beginning, but without an end, till for ever in the future ?
Mahavira : Gautama! As in the case of the seeds roasted on fire, they do not germinate any more, so in the case of the perfected beings, whose seeds of karma have been burnt, they
are not born again. It is for this it has been said that there 'he is perfected, with a beginning, but without an end, till for ever in the future.
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