________________
304
Uvavaiya Suttam Sh. 43
ciation the gross, fluid and kärman bodies. Then he takes shelter in the sky in what is called rjuśreņi (the straight lairs in the sky) and rises further up, untouched, equipped with knowledge, to enter into perfection.
तत्रस्थित सिद्ध का स्वरूप
Nature of the Liberated at the Crest
ते णं तत्थ सिद्धा हवंति सादीया अपज्जवसिया असरीरा जीवघणा दंसणणाणोवउत्ता णिट्ठियट्ठा णिरेयणा णीरया णिम्मला . वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति ।
वे वहाँ--लोक के अग्र भाग · में सिद्ध होते हैं, सादि-आदि सहित अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति के काल की अपेक्षा से आदि-सहित हैं, अपर्यवसित-अन्त रहित, अशरीर-शरीर रहित, जीवधन-सघन अवगाह रूप आत्म प्रदेश युक्त, दर्शन ज्ञानोपयुक्त-दर्शन रूप अनाकार उपयोग तथा ज्ञान रूप साकार उपयोग सहित, निष्ठितार्थ-समग्र प्रयोजनों को, समाप्त किये हुए, निरेजन-निश्चल या प्रकम्पन से रहित अर्थात सुस्थिर नीरज--कर्म रूप रज से सर्वथा रहित अर्थात वध्यमान कर्मों से विमुक्त, निर्मल-मल रहित-पूर्वबद्ध कर्म-मल से रहित, वितिमिर-अज्ञान रूप अन्धकार से पूर्णतः रहित, विशुद्ध-परम शुद्ध अर्थात् कर्म क्षय निष्पन्न आत्मिक शुद्धि युक्त, सिद्ध भगवान् भविष्य में-शाश्वत काल पर्यन्त अपने ज्योतिर्मय स्वरूप में संस्थित रहते हैं।
There, ( at the crest of the universe ), he is perfected, with a beginning but without an end, body-less, pure soul, equipped with knowledge and faith, freed from all needs, freed from the dirt of karma, freed from karma acquired previously, freed from ignorance, pure, eternal, living there for ever in the future.