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उववाइय सुत्तं सू० ४१
णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिया णिक्खंखिया निव्वितिगिच्छा लट्ठा गहिया पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा विणिच्छियट्ठा अट्ठमिंज - पेमाणुरागरत्ता अयमाउसो ! णिग्गंथे पावयणे अट्ठ े अयं परमट्ट सेसे अणट्ठे ।
वे निर्ग्रन्थ प्रवचन में निःशंकित — संदेह - रहित, निष्कांक्षित - आकांक्षा रहित, निर्विचिकित्स - - विचिकित्सा / संशय रहित, लब्धार्थ - श्रुत चारित्र रूप धर्म के यथार्थ स्वरूप को प्राप्त किये हुए, गृहीतार्थ -- अर्थ को ग्रहण किये हुए, पृष्टार्थ - प्रश्न पूछ कर उसे स्थिर किये हुए, अभिगतार्थ — अर्थ को विविधविवक्षाओ से विदित किये हुए, वनिश्चितार्थ - धर्म के यथार्थ स्वरूप में विशेष रूप से निश्चयात्मक बुद्धि रखने वाले, होते हैं । जिनकी अस्थि और मज्जा तक निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रेम एवं अनुराग से रंगी हुई है। उनका यह सुनिश्चित विश्वास है अर्थात् अन्तर्घोष है : हे आयुष्यन् ! निर्ग्रन्थप्रवचन ही अर्थ - प्रयोजन भूत है, इसके अतिरिक्त अन्य अनर्थ - अ (जन भूत है ।
Who have no doubt in the words of the Nirgranthas, who have no inclination about the tenets of others (heretics) and their promised outcome, who have obtained the real meaning, who have accepted the meaning, who have acquired the meaning by questions, who have known the meaning from diverse standpoints, who are fully firm about the meaning, whose bones and marrows are dyed with the words of the Nirgranthas, and who hear within themselves, 'Oh beloved of the gods! For separating the sensient from the insensient, the words of the Nirgranthas, are the guide, the supreme guide, the rest being trash.'
ऊसियफलिहा अवंगु यदुवारा चियत्तंतेउरपरघरदारप्पवेसा चउद्दसमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेत्ता समणे