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Uvavaiya Suutam Sh.41 जहा-बहुरया जीवपएसिया अव्वत्तिया सामुच्चेइया दोकिरिया तेरासिया अबद्धिया।
ये जो ग्राम, आकर-नमक आदि के उत्पत्ति-स्थान,...यावत् सन्निवेशझोपड़ियों से युक्त बस्ती, अथवा सार्थवाह तथा सेना आदि के ठहरने के स्थान में निह्नव-जिनोक्त अर्थ के अपलापक होते हैं, जो इस प्रकार हैं: बहुरत-अनेक समयों के द्वारा ही कार्य की निष्पत्ति मानने वाले, जीव- . प्रादेशिक-एक प्रदेश भी कम हो, जीव जीवत्व युक्त नहीं कहा जा सकता, अतएव जिस एक प्रदेश की पूर्णता से जीव, जीव रूप से माना जाता है, वही एक-प्रदेश जीव है, ऐसा मानने वाले, अव्यक्तिक-समस्त जगत् अव्यक्त है, ऐसा मानने वाले, सामुच्छेदिक-नरक, तिर्यञ्च आदि भावो का प्रतिक्षण क्षय होता है, ऐसे मत को मानने वाले, द्वैक्रिय-शीतलता एवं उष्णता आदि की अनुभूतियाँ एक ही समय में साथ होती हैं, ऐसी मान्यता ., को मानने वाले, त्रैराशिक-जीव, अजीव, और नो-जीव रूप ऐसी तीन राशियों को मानने वाले, अबद्धिका - कर्म जीव के साथ बंधता नहीं, वह केंचुल की तरह जीव का मात्र स्पश किये साथ लगा रहता है, ऐसे मत को मानने वाले।
In the villages, towns, etc.. till sanniveśas, there are the distorters, such as, those who believe that a work is done over a long time, those who believe that a space-point (pradeśa) is itself the organism, those who believe that the universe cannot be expressed in words, those who believe that the infernal and other states are losing every moment, those who believe that two activities are simultaneously felt, those who believe in three fundamentals, and those who believe that the jīva is merely touched by karma and not intermingled with it.
इच्चेते सत्त पवयणणिण्हगा केवल(लं) चरियालिंगसामण्णा मिच्छट्ठिी बहूहिं असब्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य