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उववाइय सुत्तं सू० ४१ अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा विहरित्ता बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति ।
वे सातों ही निह्नव जिन प्रवचन--जैन सिद्धान्त या वीतराग वाणी का अपलाप करने वाले, अथवा विपरीत प्रपणा करने वाले होते हैं। वे केवल चर्या-भिक्षा याचना, तथा लिंग--रजोहरण आदि चिन्हों में श्रमणों के समान होते हैं। वे मिथ्यादृष्टि हैं बहुत से असद्भाव-जिन का अस्तित्व नहीं है, ऐसी अविद्यमान वस्तुओं की निराधार परिकल्पना द्वारा, मिथ्यात्व के अभिनिवेश द्वारा, अपने को, दूसरों को, तथा स्व-पर इन दोनों को दुराग्रह-असत्य कदाग्रह में डालते हुए, दृढ़ करते हुए, जैन सिद्धान्त के विरुद्ध संस्कार जमाते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय-महाव्रतमय श्रमण-- जीवन यापन करते हैं।
Those are the seven types who distort the code but who are monks in, their behaviour and external mark, who, because of their wrong outlook, generate wrong attitudes and falsehood in self, in others, in self and others, and. direct them thither, they live like monks for many years.
_ पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं उवरिमेसु गेवेज्जेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । तहिं तेसि गती एक्कतोसं सागरोवमाइं ठिती। परलोगस्स अणाराहगा। सेसं तं चैव ॥ १९ ॥
वे अपने गृहीत पर्याय का पालन कर मृत्यु-काल आ जाने पर देहत्याग कर उत्कृष्ट ऊपरी अवेयक देवों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं। अपने स्थान के अनुरूप वहां उनकी गति होती है। वहाँ उनकी स्थितिआयुष्य परिमाण इकतीस सागरोपम प्रमाण होती है। वे परलोक के आराधक नहीं होते हैं। अवशेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिये ॥१९॥