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उववाइय सुत्तं सू० ४१
ये जो ग्राम, आकर-नमक आदि के उत्पत्ति-स्थान,...यावत् सन्निवेशझोपड़ियों से युक्त बस्ती या सार्थवाह, सेना आदि के ठहरने के स्थान में प्रव्रजित-दीक्षित श्रमण होते हैं, जो इस प्रकार हैं : आत्मोत्कर्षक-अपना ही उत्कर्ष दिखाने वाले, अपना बड़प्पन बखानने वाले, पर-परिवादकऔरों की निन्दा करने वाले, भूतिकर्मिक-ज्वर आदि व्यथा, उपद्रव शान्त करने के लिये अभिमन्त्रित भस्म आदि देने वाले, कौतुककारकभाग्योदय आदि के निमित्त चमत्कारपूर्ण बातें बार-बार करने वाले, वे इस प्रकार की चर्या-आचार लिये विहार करते हुए, जीवन यापन करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करते हैं। अपने गृहीत पर्याय का पालन कर वे अपने पाप स्थानों की आलोचना नहीं करते हुए, उनसे प्रतिक्रमण-प्रतिनिवृत्त नहीं होते हुए मत्यु काल आ जाने पर देह त्यागकर उत्कृष्ट अच्युत कल्प-बारहवें देव लोक में आभियोगिक देवों में सेवक वर्ग के देवों में देव रूप में उत्पन्न होते हैं। अपने स्थान के अनुरूप वहाँ उनकी गति होती है। वहां उनकी स्थिति-आयुष्य परिमाण बाईस सागरोपम प्रमाणं होती है। वे परलोक के आराधक नहीं होते हैं। अवशेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिये ।। १८॥
___ In the villages, towns, till sannivesas, there are Sramanas who are initiated into monkhood. They are : some who extol themselves, some who decry others, those who offer a pinchful of ashes to serve as antidote, and those who try to improve their luck again and again through propitiatory activity. They live like this in the Gramaņa order for many years, but discuss . not their lapses nor offer atonement, so that, passing away at a certain point in eternal time, they are born in Acyutakalpa among the valet gods as celestial beings. Their span of life there is 22 sägaropamas. They do not propitiate the next birth. The rest as before. 18
निह्नवकारियों का उपपात
Rebirth of the Distorters
से जे इमे गामागर जाव...सण्णिवेसेसु णिण्हगा भवंति तं